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Limitation ACT 1963

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Limitation ACT 1963 


1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारम्भ -

 (1) यह अधिनियम परिसीमा अधिनियम, 193 कहा जा सकेगा।

(2) इसका विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है T।

(3) यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जिसे केन्द्रीय सरकार, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे।

2. परिभाषाएँ -

 इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो- आवेदक" के अन्तर्गत आता है -

(i) अर्जींदार;

(ii) वह व्यक्ति, जिससे या जिसके माध्यम से आवेदक आवेदन करने का अपना अधिकार व्यूत्पन्न करता है;

(i1) वह व्यक्ति जिसकी सम्पदा का प्रतिनिधित्व आवेदक द्वारा निष्पादक, प्रशासक या अन्य प्रतिनिधि के तौर पर किया जाता है;

 आवेदन" के अन्त्गत अर्जी आती है;

 विनिमय पत्र" के अन्तर्गत हुण्डी और चैक, आते हैं; "बन्धपत्र" के अन्तर्गत ऐसी कोई लिखत आती है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति (किसी अन्य को धन देने के लिए अपने को इस शर्त पर बाध्यता के अधीन कर लेता है कि यदि कोई विनिर्दिष्ट कार्य किया जाए या न किया

जाए, जैसी भी स्थिति हो, तो वह बाध्यता शुन्य हो जाएगी; 

"प्रतिवादी" के अन्तर्गत औता है-

(i) वह व्यक्ति जिससे या जिसके माध्यम से प्रतिवादी यह दायित्व व्युत्पन्न करता है कि उस पर वाद लाया जा सके;

(ii) वह व्यक्ति जिसकी सम्पदा का प्रतिनिधित्व प्रतिवादी ह्वारा निष्पादक, प्रशासक या अन्य प्रतिनिधि के रूप में किया जाता है :

 सुखाचार" के अन्त्गत आता है संविदा से उद्भूत नं होने वाला ऐसा अधिकार जिसके द्वारा कोई व्यक्ति किसी अन्य की मृदा के किसी भाग को या किसी अन्य की भूमि में उगी हुई या उससे संलग्न या उस पर अस्तित्ववान् किसी चीज को हटाने और अपने लाभ के लिए विनियोजित करने का हकदार होता है :

"विदेश" से अभिप्रेत है भारत से पिन्न कोई भी देश 

"सद्भाव" कोई भी बात, जो सम्यकू सतर्कता और ध्यान से नहीं की गई है, सद्भावपूर्वक की गई नहीं समझी जाएगी

"वादी" के अन्तर्गत आता है -

(a) वह व्यक्ति जिससे या जिसके माध्यम से वादी वाद लाने का अपना अधिकार व्युत्पन्न करता है :

(b) वह व्यक्ति जिसको सम्पदा का प्रतिनिधित्व वादी द्वारा निष्पादक, प्रशासक या अन्य प्रतिनिधि के रूप में किया जाता है :

"परिसीमा काल" से वह परिसीमा काल अभिप्रेत है, जो किसी वाद, अपील या आवेदन के लिए अनुसूची द्वारा विहित है और "विहित काल" से वह परिसीमा काल अभिप्रेत है जो उस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार संगणित परिसीमा काल हो;

वचनपत्र " से ऐसी लिखत अभिप्रित हे जिसके द्वारा उसका रचयिता किसी अन्य को धन की कोई विनिर्दिष्ट राशि उसमें परिसीमित समय पर या मांग की

जाने पर या दर्शन पर देने के लिए आत्यन्तिकतः, वचनबद्ध होता है;

"वाद'" के अन्तर्गत अपील या आवेदन नहीं आता है;

"अपकृत्य" से ऐसा सिविल दोष अभिप्रेत है जो केवल संविदा भंग या न्यासभंग न हो;

"न्यासी" के अन्तर्गत बेनामीदार, बंधक की तुष्टि हो जाने के पश्चातु कब्जे में बना रहने वाला बंधकदार  या हक के बिना संदोष कब्जा रखने वाला व्यक्ति नहीं आता।

 

3. परिसीमा द्वारा वज्जन-

(1) धारा 4 से 24 तक (जिनके अन्तर्गत ये दोनों धाराएं आती हैं), अन्तर्विष्ट  उपबंधों के अध्यधीन यह है कि विहित काल के पश्चात् हर संस्थित वाद, की गई अपील और किया गया आवेदन खारिज कर दिया जाएगा, यद्यपि प्रतिरक्षा के तौर पर, परिसीमा की बात उठाई न गई हो।

(2) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए यह है कि वाद की संस्थिति -(1 मामूली दशा में तब होती है, जब वादपत्र उचित ऑफिसर के समक्ष उपस्थित किया जाता है; अकिंचन की दशा में तब होती है, जब अकिंचन के तौर पर वाद लाने की इजाजत के लिए उसके द्वारा आवेदून किया जाता है; तथा उस कम्पनी के विरुद्ध दावे की दशा में जिसका न्यायालय द्वारा परिसमापन किया जा रहा हो तब होती है जब दावेदार के दावे का परिदान शासकीय समापक को पहली बार कारित किया जाता है; मुजरा या प्रतिदाव के तौर का दावा एक पथक वाद माना जाए्या, और यह समझा जाएगा कि ऐसा दावा- 

(i) मुजरे की दशा में, उसी तारीख को, जिसको वह गया हो जिसमें मुर्जरें का अभिवन वाद संस्थित किया गया हो किया गया है;प्रतिदावे की दशा में उस तारीख को जिस न्यायालय में प्रतिदावा किया गया हो, संस्थित किया गय समझा जाएगा;  उच्च न्यायालय मैं प्रस्ताव की सूचना द्वारा आवेदन

तब होता है, जब आविदन उस न्यायालय के उचित ऑफिसर के समक्ष उपस्थित किया जाता है। विहित काल का अवसान जब न्यायालय हो-जहां कि किसी वाद, अपील या आवेदनके लिए विहित काल का अवसान किसी ऐसे दिन होता हो जिस दिन न्यायालय बंद हो, वहां उस दिन वाद सीस्थित किया जा सकेगा, अपील की जा सकेगी या आवेदन किया जा सकेगा जिस दिन न्यायालय फिर खुले। 

स्पष्टीकरण-न्यायालय इस धारा के अर्थ के भीतर उस दिन बन्द समझा जाएगा जिस दिन अपने काम के नियमित काल के किसी भी भाग में बन्द रहे।

5. विहित काल का कातिपय दशाओं में विस्तारण-

कोई भी अपील या कोई भी आवेदन, जो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के आदेश 21 के उपबंधों में से किसी के अधीन के आवेदन से भिन्न हो, विहित काल के पश्चातु ग्रहण किया जा सकेगा यदि अपीलार्थीं या आवेदक, न्यायालय का यह समाधान कर दे कि उसके पास ऐसे काल के भीतर अपील या आवेदन करने के लिए पर्याप्त हेतुक था।

स्पष्टीकरण-यह तथ्य वि अपीलार्थी या आवेदक विहित काल का आभिनिश्चय या संगणना करने में उच्च न्यायालय के किसी आदेश, पद्धति या निर्णय के कारण भुलावे में पड़ गया था, इस धारा के अर्थ के भीतर पर्याप्त हेतुक हो सकेगा।

विधिक नियार्यता -1) जहां कि कोई ऐसा व्यक्ति , जिसे वाद संस्थित करने का या किसी डिकी के निश्याद्त के लिए आवेदन करने का हक हो, उस समय, जब से विहित काल की गणना की जानी है, 

अप्राप्तवयया पागल या जड़ हो, वहा उस नियोग्यता का अन्त होने के पश्चात वह उतने ही काल के भीतर वाद संस्थित या आवेदन अनुसूची के तीसरे स्तम्म कर सकेगा जितना उसे अन्यथा मैं तदर्थ विनिर्दिष्ट समय से अनुज्ञात होता है।

(2) जहां कि ऐसा व्यक्ति, उस समय, जब से विहित काल की गणना की जानी है, ऐसी दो निय्योग्यताओं से ग्रस्त हो अथवा जहां कि वह अपनी नियोग्यता का अन्त होने के पूर्व किसी दुसरी नियाँग्यता से ग्रस्त हो जाए वहां वह दोनों निरयोग्यताओं का अन्त होने के पश्चात् उतने ही काल के भीतर वाद संस्थित या आवेदन कर सकेगा। जितना आन्यथा ऐसे विनिर्दिष्ट समय से अनुज्ञात होता।

(3) जहां कि निर्योग्यता उस व्यक्ति की मृत्यु तक बनी  रहे वहां उसकी विधिक प्रतिनिधि उसकी मृत्य के पश्चात् उतने ही काल के भीतर वाद संरिथित यां आवेदन कर सकेगा जितना अन्यथा ऐसे विनिर्दिष्ट समय से अनुज्ञात होता।

(4) जहां कि उपधारा (3) में निर्दिष्ट विधिक प्रतिनिधि जिस व्यक्ति का वह प्रतिनिधित्व करता है, उसकी मृत्यु की तारीख को ऐसी किसी निरयोग्यता से ग्रस्त हो वहां  उपधाराओं (1) और (2) में अन्तविष्ट नियम लागू होंगे। जहां कि निर्योग्यता के अधीन कोई व्यक्ति निर्योग्यता का अन्त हो जाने के पश्चात् किन्तु उस काल के भीतर, जो उसके लिए इस धारा के अधीन अनुज्ञत है, मर जाए वहां उसका विधिक प्रतिनिधि उसकी मृत्यु के प्श्चात् उसी काल के भीतर वाद संस्थित या आवेदन कर सकेगा जितना उस व्यक्ति को अन्यथा उपलब्ध होता यदि उसकी मृत्यु न हुई होती।

स्पष्टीकरण -इस धारा के प्रयोजनों के लिए" अप्राप्तवय" के अन्तर्गत गर्भस्थ अपत्य आता है।

7, कई व्यवक्तियों में से एक की नियोग्यता - 

जहां कि वाद संस्थित करने या डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन करने के लिए संयुक्ततः हकदार व्यक्तियों में से कोई - एक ऐसी किसी नियोग्यता के अधीन हो और उस व्यक्ति की सहमति के बिना उन्मोचन दिया जा सकता हो, वहां उन सबके विरुद्ध समय का चलना आरम्भ हो जाएगा,

किन्तु जहां कि ऐसा उन्मोचन न दिया जा सकता हो वहां उनमें से किसी के भी विरुद तब तक समय का चलना आरम्भ न होगा जब तक उनमें से कोई एक अन्यों की  सहमति के बिना ऐसा उन्मोचन देने के लिए समर्थ न हो जाए या उस निरयोग्यता का अन्त न हो जाए।

स्पष्टीकरण 1-यह धारा हर प्रकार के दायित्व से,जिसके अन्तर्गत स्थावर सम्पत्ति संबंधी दायित्व अआता 

स्पघ्टीकरण 2- मिताक्षर विधि द्वारा शासित हिन्दू अविभक्त कुटुम्ब का कर्ता कुटुम्ब के अन्य सदस्यों की सहमति के बिना इस धारा के प्रयोजनों के लिए उन्मोचन देने के लिए समर्थ केवल तब समझा जाएगा जबकि वह अविभक्त कुट्ुम्ब की सम्पत्ति का प्रबंध करता हो।


8. विशेष अपवाद-धारा 6 या धारा 7 की कोई भी बात शुफा अधिकारों को प्र्वर्तित कराने के वादों को लागू नहीं होती और न किसी वाद अथवा आवेदन की परिसीमा काल को निर्योग्यता के अन्त से या उससे ग्रस्त व्यक्ति की मृत्यु से तीन वर्ष से अधिक विस्तारित करने वाली समझी जाएगी। 


9. समय का निरन्तर चलते रहना-

जहां कि एक बार समय का चलना प्रारंभ हो जाए वहां वाद संस्थित करने या आवेदन करने की किसी भी पाश्चिक नियोग्गता या अयोग्यता से वह नहीं रुकता : परन्तु जहां कि किसी लेनदार की संपदा या प्रशासन- पत्र उसके ऋणी को अनुदत्त कर दिया गया हो वहां ऐसे ऋण को वसूल करने के बाद के परिसीमा काल का चलते रहना तब तक निलम्बित रहेगा जब तक वह प्रशासन चलता रहे।.

10, न्यासियों तथा उनके प्रतिनिधियों के विरुद्ध वाद -

इस अधिनियम के पूर्वगामी उपबंधों मैं अन्तर्विष्ट किसी बात के होते भी, किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध, जिसमें सम्मत्ति किसी विनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिए न्यास -निहित हुई हो अथवा उसके विधिक प्रतिनिधियों या समनुदेशितियों के विरुद्ध (जो मूल्यवान प्रतिपफलार्थ समनुदेशिती न हो) उसके या उनके हस्तगत ऐसी सम्पत्ति या उसके आगमों का पीछा करने के प्रयोजन से या उस सम्पत्ति या उसके आगमों के लेखा के लिए कोई वाद कितना भी समय बीत जाने के कारण वजिंत न होगा।

स्पष्टीकरण-इस धारा के प्रयोजनों के लिए किसी हिन्द, मुसलमान या बौन धार्मिक या खैराती विन्यास में समाविष्ट कोई भी सम्पत्त एक विनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिए न्यास-निहित समझी जाएगी और सम्पत्ति या प्रबंधक उसका न्यासी समझा जाएगा  उनके बाहर की गई संविदाओं के आधार पर वाद-(1) जम्मू-कश्मीर राज्य या विदेश में की गई संविदाओं के आधार पर उन राज्यक्षेत्रं में, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है, संस्थित किए गए वाद इस

अधिनियम में अन्तर्विष्ट परिसीमा विषयक नियमों के अध्यधीन होगें।

(2) जन्मु-कश्मीर राज्य या किसी विदेश में प्रवृत्त परिसीमा विषयक कोई भी नियम उस राज्य या विदेश । में की गई किसी संविदा पर आधारित वाद में, जो उक्त राज्यक्षेत्रों में संस्थित किया गया हो, तब के सिवाय प्रतिरक्षा न होगा, ताकि-

(क) उस नियम ने उस संविदा को निर्वापित कर दिया , हो; और

(ख) पक्षकार ऐसे नियम द्वारा विहित काल के दौरान उस राज्य या विदेश के अधिवासी थे।

12. विधिक कार्यवाहियों में समय का अपवर्जन-

(1) किसी वाद, अपील या आवेदन के परिसीमा काल की संगणना करने में वह दिन अपवर्जित कर दिया जाएगा, जिससे ऐसे परिसीमा काल की गणना की जानी है। 

2) किसी अपील के लिए अथवा ऐसे आवेदन के लिए, जो अपील की इजाजत या पुनरीक्षण के, या किसी निर्णय के पुनर्विलोकन के एहो, परिसीमा काल की संगणना करने में वह दिन, जिस दिन परिवादित निर्णय सुनाया गया था तथा उस डिक्री, दण्ड़ादेश या आदेश की, जिसकी अपील की गई है या जिसका पुनरीक्षण या पुनर्विलोकन इंप्सित है प्रतिलिपि अभिप्राप्तू करने के लिए अपेक्षित - समय पजित वकर दिया जाएगा।

(3) जहां कि किसी डिक्री या आदेश की अपील की जाती है या उसका पुनरीक्षण या पुनर्विलोकन इंप्सित है। या जहां कि किसी डिक्री या आदेश की अपील की इजाजत के लिए आवेदन किया जाता है, वहां उस निर्णय की प्रतिलिपि अभिप्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय भी उपवार्जित कर दियां जाएगा।

(4) किसी पंचाट के अपास्त किए जाने के लिए आवेदन के परिसीमा काल की संगणना करने में पंचाट की प्रतिलिपि.अभिप्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय अपवर्जित कर दिया जाएगा।

स्पष्टीकरण-किसी डिक्री या आदेश की प्रतिलिपि  अभिप्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय की इस धारा अधीन संगणना करने में वह समय अपवर्जित नहीं कियाजाएगा जो न्यायालय ने उस डिक्री या आदेश की प्रतिलिरि के लिए आवेदन किए जाने से पूर्व डिक्री या आदेश को तैयार करने में लगाया हो।

13, उन दशाओं में समय का अपवर्जन जहां कि अकिचन के रूप में वाद लाने या अपील करने की इजाजत के लिए आवेदन किया गया हो -

(1) जहां कि अकिंचन के रूप में वाद या अपील करने की इजाजत के लिए आवेदन किया गया हो और वह प्रतिक्षेपित हो गया हो वहां उस वाद अथवा अपील के लिए विहित परिसीमा काल की संगणना में उतना समय अपवर्जित कर दिया जाएगा जितने समय के दौरान आवेदक उस इजाजत के लिए अपना आवेदन सदुभावपूर्वक अभियोजित करता रहा हो, तथा ऐसे वाद या अपील के लिए विहित न्यायालय फीस दे दिए जाने पर न्यायालय इस वाद या अपील को वही बल और प्रभाव रखने वाली मानकर बरतेगां मानो यायालय फीस प्रारंभ में ही दे दी गई हो। बिना अधिकारिता वाले न्यायालय में सद्भावपूर्वक क की गई कार्यवाही में लगे समय का अपवर्जन-

(1) किसी वाद की परिसीमा काल की संगणना में उतना समय जितने समय के दौरान वादी चाहे प्रथम बार के  चाहे अपील या पुनरीक्षण न्यायालय में प्रतिवादी के विरुद्ध अन्य सिविल कार्यवाही सम्यकू तत्परता से अभियोजित- करता रहा है, अपवर्जित कर दिया जाएगा जहां कि वह कार्यवाही उसी विवाद्य विषय से संबंधित हो और सद्भावपूर्वक किसी ऐसे न्यायालय में अभियोजित की गई हो जो अधिकारिता की त्रटि या वैसी ही प्रकृति के अन्य हेतुक से उसे ग्रहण करने में असमर्थ हो।

(2) किसी आवेदन के परिसीमा काल की संगणना में उतना समय, जितने के दौरान वादी चाहे प्रथम बार अपील चाहे पुनरीक्षण न्यायालय में उसी पक्षकार के विरुद्ध उसी आनुतोष के लिए अन्य सिविल कार्यवाही सम्यकू तत्परता से अभियोजित करता रहा है, अपवर्जित कर दियां जाएगा जहां कि कार्यवाही सद्भावपूर्वक किसी ऐसे न्यायालय में अभियोजित की गई हो जो अधिकारिता की त्रुटि या वैसी ही प्रकृति के अन्य हेतुक से उसे ग्रहण करने में असमर्थ हो। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के आदेश 23 के नियर्म 2 में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी उपधारा (1) के उपबन्ध उस आदेश के नियम 1 के अधीन न्यायालय द्वारा दी गई अनुज्ञा के आधार पर संस्थित नए वाद के संबंध में लागूु होंगे जहां कि ऐसीअनुज्ञा इस आधार पर दी गई है वकि अधिकारिता में त्रुटियां वैसी ही प्रकृति के अन्य हेतुक से पहले वाद का असफल होना अवश्यम्भावी है।

स्पष्टीकरण-इस धारा के प्रयोजन के लिए- (क) उस समय का अपवर्जन करने में, जिसके दौरान कोई पूर्ववती सिविल कार्यवाही लम्बित थी वह दिन,

जिस दिन वह कार्यवाही संस्थित की गई और वह दिन जिस दिन उसका अन्त हुआ, दोनों गिने जाएंगे; (ख) कोई वादी या आवेदक, जो किसी अपील का प्रतिरोध कर रहा हो, कार्यवाही का अभियोजन करता हुआ समझा जाएगा;

(ग) पक्षकारों के या वाद- हेतुकों के कुसंयोजन को अधिकारिता में त्रुटि जैसी प्रकृति का हेतुक समझा जाएगा। कुछ अन्य मामलों में समय का अपवर्जन-(1) किसी ऐसे वाद के या किसी ऐसी डिक्ी के निष्पाद के लिए आवेदन के, जिसका संस्थित या निष्पादित किया जाना किसी व्यादेश या आदेश द्वारा रोक दिया गया हो, परिसीमा काल की संगणना में, उतना समय, जितने समय ऐसा व्यादेश या आदेश बना रहा हो, वह दिन

जिस दिन वह निकाला ग या किया गया था और वह दिन जिस दिन उसका प्रत्याहरण किया गया था, अपवर्जित कर दिए जाएंगे।

(2) किसी तत्समय प्रवृत्त विधि की अपेक्षाओं के अनुसार

किसी ऐसे वाद के परिसीमा काल की संगणना में, जिसकी

सूचना दी गई है या जिसके लिए सरकार या किसी अन्य

प्राधिकारी की पूर्व सम्मति या मंजूरी अपेक्षित है, ऐसी

सूचना की कालावधि या, यथास्थिति, ऐसी सम्मति अथवा

मंजूरी अभिप्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय अपवर्जित

कर दिया जाएगा।


| स्पष्टीकरण -सरकार या किसी अन्य प्राधिकारी की सम्मति

या मंजूरी अभिप्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय का

? अपवर्जन करने मैं वह तारीख जिसको सम्मति अथवा

मंजूरी अभिप्राप्त करने के लिए आवेदन किया गया था

और वह तारीख, जिसको सरकार या अन्य प्राधिकारी

का आदेश प्राप्त हुआ था, दोनों गिनी जाएंगी।

n Act, 1963

(3) किसी व्यक्ति को दिवालिया न्यायनिर्णात करने की

(Sec. 16

कार्यवाही में नियुक्त किसी रिसीवरया अन्तरिम रिसीवर

द्वारा या किसी कम्पनी के परिसमापन की कार्यवारी औै

नियक्त किसी समापक यो अनातम समापक द्वारा किए

गए किसी वाद या डिक्री के निष्पादनांर्थ आवेदन के

परिसीमा काल की संगणना में वह कालावधि अपवर्जं

कर दी जाएगी जो ऐसी कार्यवाही को संस्थित करने की

तारीख को प्रारम्भ होकर, यथास्थिति, रिसीवर या समापक

की नियुक्ति की तारीख से तीन मास के अवसान पर

समाप्त होती है।


(4) किसी डिक्री के निष्पादन में हुए विक्रय में के क्रेता

द्वारा कब्जे के लिए वाद के परिसीमा काल की संगणना

में उतना समय अपवर्जित कर दिया जाएगा जिसके दौरान

विक्रय अपास्त कराने के लिए कोई कार्यवाही अभियोजित

की जाती रही हो।

(5) किसी वाद के परिसीमा काल की संगणना में उतना.

समय अपवर्जित कर दिया जाएगा जिसके दौरान प्रतिवादी

भारत से तथा भारत के बाहर के उन राज्यक्षेत्रं से जो

केन्द्रीय सरकार के प्रशासन के अधीन है, अनुपस्थित

रहा हो।

16) वाद लाने का अधिकार प्रोदूभूत होने पर या होने

के पूर्व मृत्यु हो जाने का प्रभाव-(1) जहां कि कोई

व्यक्ति, जिसे यदि वह जीवित रहता तो वाद संस्थित,

करने या आवेदन करने का अधिकार होता, उस अधिकार

के प्रोदृभूत होने के पहले मर जाए या जहां कि वाद 0

संस्थित करने या आवेदन करने का अधिकार किसी है।

व्यक्ति की मृत्यु पर ही प्रोद्भूत होता हो वहां परिसीमा

कोल की संगणना उस समय से की जाएगी जब मृतक

का ऐसा विधिक प्रतिनिधि हो जाए जो ऐसा वाद संस्थित

करने या आवेदन आवेदित करने के लिए समर्थ हो।

(2) जहां कि कोई व्यक्ति, जिसके विरुद्ध यदि वह

जवित रहता तो वाद संस्थित करने या आवेदन करने

का अधिकार प्रोद्भूत हुआ होता, उस अधिकार के प्रद्भूत

हान से पहले मर जाए, या जहां किसी व्यक्ति के विरुद्ध -

वाद संस्थित करने या आवेदन करने का अधिकार उसका

ृत्यु पर प्रोद्भूत होता हों, वहां परिसीमा काल की

संगणना उस समय से की जाएगी जब मृतक का ऐसा

विधिक प्रतिनिधि हो जाए जिसके विरुद्वादी ऐसा वाद

संस्थित कर सके या आवेदन कर सक।

(3) उपधारा (1) या उपधारा (2) की कोई भी बात शुफा अधिकारों को प्रवर्तित कराने के वादों को अथवा

किसी स्थावर सम्पत्ति के या आनुवंशिक पद के कब्जे

के वाद को लागू नहीं होती।

1 कपट या भूल का प्रभाव-(1) जहां कि किसी 2

ऐसे वाद या आवेदन के मामले में, जिसके लिए इस

अधिनियम द्वारा कोई परिसीमा काल विहित है -

(क) वह वाद या आवेदन प्रतिवादी यां प्रत्यर्थी या उसके

अभिकर्ता के कपट पर आधारित है; अथवा

(ख) उस अधिकार या हक का ज्ञान जिस पर वाद या

आवेदन आधारित है, किसी यथापूर्वोक्त व्यक्ति के कपट

द्वारा छिपाया गया है; अथवा

(ग) वह वाद या आवेदन किसी भूल के परिणाम से

मुक्ति के लिए है; अथवा

(घ) वादी या आवेदक के अधिकार को स्थापित करने

के लिए आवश्यक कोई दस्तावेज उससे कपटपूर्वक

छिपाई गई है;

वहां परिसीमा काल का चलना तब तक के बिना आरम्भ

न होगा जब वादी या आवेदक को उस कपट या भूल का

पता चल न जाए या सम्यकृ तत्परता से पता चल सकता

था, अथवा छिपाई गई दस्तावेज की दशा में तब तक के

बिना आरम्भ न होगा, जबकि छिपाई गई दस्तावेज के

पेश करने या उसका पेश किया जाना विवश करने के

साधन वादी या आवेदक को सर्वप्रथम प्राप्त न हुए हों :

परन्तु इस धारा की कोई भी बात किसी ऐसी सम्पत्ति के

प्रत्युद्धरण के या उसके विरुद्ध कोई भार प्रवर्तित कराने

के या तत्संबंधी किसी संव्यवहार को अपास्त कराने के

वाद का संस्थिति किया जाना या आवेदन को किया जाना

शक्य नहीं बनाएगी जो-

(i) कपट के मामले में, किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा मूल्यवान

प्रतिफलेन क्रय की गई हो जिसका न तो कपट में कोई

हाथ था, और न जो क्रय के समय यह जानता या यह

विश्वास करने का कारण रखता था कि कोई कपट

किया गया है; अथवा

(i) भूल के मामले में, उस संव्यवहार के पश्चात् जिसमें

भूल की गई, ऐसे व्यक्ति द्वारा मूल्यवान् प्रतिफलेन क्रय

की गई है, जो न यह जानता या विश्वास करने का

कारण रखता या कि भूल की गई है; अथवा

(i) छिपाई गई दस्तावेज के मामले में, ऐसे व्यक्ति

द्वारा मूल्यवान प्रतिफलेन क्रय की गई है जिसका न तो

छिपाने में कोई हाथ था और न जो क्रय करने के समय

यह जानता या विश्वास करने का कारण, रखता था किवह दस्तावेज छिपाई गई है। 8

(2) जहां कि किसी डिक्री या

कि किसी निर्णीतऋणी ने

आदेश का परिसीमा काल के भीतर निष्मादन कपट या

बल प्रयोग द्वारा निवारित कर दिया हो, वहां न्यायालय

उक्त परिसीमा काल के अवसान के पश्चात् निर्णीत

लेनदार द्वारा किए गए आवेदंन परडिक्या आदेश के

निष्यादन के लिए परिसीमा काल को बढ़ा सकेगा,

परन्तु यह तब जबकि ऐसा आवेदन,थास्थिति, कपट

का पता लगाने की या बल प्रयोग के बन्द होने की

तारीख से एक वर्ष के भीतर किया किया गया हो

18, लिखित अभिस्वीकृति का प्रभाव-(1) जहां कि

किसी सम्पत्ति या अधिकार विषयक वाद या आवेदन के

लिए विहित काल के अवसान के पहले ऐसी सम्पत्ति या

अधिकार विषयक दायित्व की लिखित अभिस्वीकृति

की गई है, जो उस पक्षकारे द्वारा, जिसके विरुद्ध ऐसी

सम्पत्ति या अधिकार का दावा किया जाता है, या ऐसे

किसी व्यक्ति द्वारा जिसमें वह अपना अधिकार या दायित्व

व्युत्पन्न करता है, हस्ताक्षरित है वहां उस समय से,

जब वह अभिस्वीकृति इस प्रकार हस्ताक्षरित की गई

थी एक नया परिसीमा काल संगणित किया जाएगा/,

(2) जहां कि वह लेख जिसमें अभिस्वीकृति अन्तर्विष्ट

है, बिना तारीख का है वहां उस समय के बारे में जब

वह हस्ताक्षरित किया गया था मौखिक साक्ष्य दिया जा

सकेगा किन्तु भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872

का 1) के उपबन्धों के अध्यधीन यह है कि उसकी

अन्तर्वस्तु का मौखिक साक्ष्य ग्रहण नहीं किया जाएगा।,

स्पष्टीकरण-इस धारा के प्रयोजन के लिए-

(क) अभिस्वीकृति पर्यप्त हो सकेगी यद्यपि वह उसे

सम्पत्ति या अधिकार की यथावत् प्रकृति का विनिर्देश न

करती हो अथवा यह प्रकथन करती हो कि संदाय, परिदान,

पालन या उपभोग का समय अभी नहीं आया है, अथव

वह संदाय, परिदान या पालन के अथवा उपभोग की

अनुज्ञा के ईकार सहित हो अथवा मुजरके किसी दावे

सयुक्त हो, अथवा उस सम्पत्ति'ा अधिकार के हकदार

व्यक्ति से भिन्न किसी अन्य व्यक्ति को सम्बोधितो;

(खं) "हस्ताक्षरित'" शब्दसे या तो स्वर्य्वारा या इस

निमित्त सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा हस्ताक्षरित

अभिप्रेत है; तथा

(শ) घह आवेदन, जो डिक्ी या आदेश के निष्पादन के

लिए हो किसी सम्मत्ति या अधिकार की बाबत आवेदननहीं समझा जाएगा।

2 ऋ्रण लेखे या वसीयत-सम्पदा का ब्याज लेखे

संदाय का प्रभाव-जहां कि ऋण या वसीयत-सम्पदा

के संदाय के लिए दायी व्यक्ति द्वारा या उसके इस निमित्त

सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा कोई संदाय उस ऋण

लेखे या उस वसीयत के ब्याज लेखे विहित काल के

अवसान के पूर्व किया जाता है, वहां उस समय से, जब

संदाय किया गया था, नया परिसीमा काल संगणित किया

जाएगो:

परन्तु उस दशा के सिवाय, जिसमें ब्याज का संदाय सन्

1928 की जनवरी के प्रथम दिव के पूर्व किया गया था

यह तब होगा जब उस संदाय की अभिस्वीकृति, संदाय

करने वाले व्यक्ति के हस्तलेख में या उसके द्वारा

हस्ताक्षरित लेख में हो।

स्पष्टीकरण-इस धारा के प्रयोजनों के लिए-

(क) जहां कि बन्धकित भूमि बन्धकदार के कब्जे में

हो वहां ऐसी भूमि के भाटक या उपज की प्राप्ति संदाय

मानी जाएगी;

(ख) ऋणों के अन्तर्गत वह धन नहीं आता जो

न्यायालय की डिक्री या आदेश के अधीन संदेय हो।

0) किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अभिस्वीकृति या संदाय

का प्रभाव-(1) धारा 18 तथा धारा 19 में इस निमित्त

सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता " पद के अंन्तर्गत निर्योग्यता

के अधीन व्यक्ति की दशा में उसका विधिपूर्ण संरक्षक,

सुपुर्दार या प्रबन्धक या अभिस्वीकृति हस्ताक्षर करने

अथवा संदाय करने के लिए ऐसे संरक्षक, सुपर्ददार या

प्रबंध द्वारा सम्यकू रूप से प्राधिकृत अभिकर्ता आता है।


(2) उक्त धाराओं में की कोई भी बात अनेक संयुक्त

संविदाकर्ताओं, भागीदारों, निष्यादकों या बन्धकदारों में

से किसी एक को उनमें से किसी अन्य या किन्हीं अन्यों

द्वारा या के अभिकर्ता द्वारा हस्ताक्षरित लिखित

अभिस्वीकृति या किसी किए गए संदाय के कारण ही

प्रभार्य नहीं कर देती।

(3) उक्त धाराओं के प्रयोजनों के लिए-

(क) सम्पत्त के किसी परिसीमित स्वामी द्वारा, जो हिन्दू

विधि से शासित हो या उसके सम्यक प्राधिधिकृत अभिकर्ता

द्वारा किसी दायित्व की बाबत हस्ताक्षारित अभिस्वीकृति

या किया गया संदाय ऐसे दायित्व को उत्तराधिकार में पानेवाले उत्तरभोगी के विरुद्ध, यथास्थिति, विधिमान्य

अभिस्वीकृति या संदाय होगा; तथा

(ख) वह जो उसे अविभक्त

अभिस्वीकृति या संदाय, जो

हिन्दू कुटुम्ब के त्समय कर्ता उसके सम्यक् प्राधिकृत

अभिकर्ता द्वारा किया गया है उसे समस्त कुटुम्ब की

ओर से किया गया समझा जाएगा, यदि किसी अविभक्ष

हिन्दू कुटुम्ब की उस हैसियत में उसके द्वारा या उसकी

ओर से कोई दायित्व उपगत किया गया हो।

21. नया वादी या प्रतिवादी प्रतिस्थापित करने य

जोड़ने का प्रभाव-(1) जहां कि वाद संस्थित होने के

पश्चात् कोई नया वादी या प्रतिवादी प्रतिस्थापित किया

गया या जोड़ा जाए वहां वाद, जहां तक कि उसका

संबंध है, तब संस्थित किया गया समझा जाएगा जब वह

इस प्रकार पक्षकार बनाया गया था :

परन्तु जहां कि न्यायालय का समाधान हो जाए कि नए

वादी या प्रतिवादी को अन्तर्वष्ट करने में लोप

सद्भावपूर्वक की गई भूल से हुआ था, वहां वह यह

निदेश दे सकेगा कि वाद, जहां तक ऐसे वादी या प्रतिवादी

का संबंध है, किसी पूर्ववर्ती तारीख से संस्थत किया

गया समझा जाएगा।

(2) उपधारा (1) की कोई बात ऐसे मामले को लागु न

होगी जिसमें वाद के लम्बित रहने के दौरान हुए किसी

हित के समनुदेशन या न्यागमन के कारण कोई पक्षकार

जोड़ा या प्रतिस्थापित किया जाए या जिसमें कि वादी को

प्रतिवादी या प्रतिवादी को वादी बनाया जाए।

22. चालू रहने वाले भंग और अपकृत्य-किसी चालू

रहने वाले संविदा- भंग या चालू रहने वाले अपकृत्यकी

दशा में एक नया परिसीमा काल उस समय के दौरान

प्रति क्षण चलना आरम्भ होता रहता है जिसमें, यथास्थिति

ऐसा भंग या ऐसा अपकृत्य चालू रहे।

23. उन कार्यां के लिए प्रतिकर का बाद जो बिशेष

नुकसान के बिना, अनुयोज्य न हों-उस कार्य के

लिए, जिसमें कोई वाद-हेतुक तब तक उद्धुत नहीं

होता जब तक उससे कोई विनिर्दिष्ट क्षति वस्तुतः नहीं

होती, प्रतिकर के वाद की दशा में परिसीमा काल उस

समय से संगणित किया जाएगजब वह क्षति हो जाए।

ललिखतों में वर्णित समय की संगणना-सब

= लिखतें हस अधिदियम के प्रयोजनों के लिए ग्रिगोरियन

कलेंहर को निर्द्रिष्ट करके लिखी गई समझी जाएगी।का अर्जन

25. सुखाचारों का चिरभोग द्वारा अर्जन-(1) जहां कि

किसी निर्माण के उपभोग के साथ- साथ उसमें या उसके

लिए प्रकाश या वायु के प्रवेश और उपयोग का उपभोग

सुखाचार के तौर पर और साधिकार, किसी विध्न के बिना

और बीस वर्ष तक शान्तिपूर्वक किया गया हो, तथा जहां

कि किसी मार्ग का या जलसारणी का या किसी जल के

उपयोग का अथवा किसी अन्य सुखाचार का चाहे (वह

सकारात्मक हो या नकारात्मक) उपभोग ऐसे किसी व्यक्ति

ने, जो सुखाचार के तौर पर और साधिकार उस पर हक

रखने का दावा करता हो विध्न के बिना और बीस वर्ष

शान्तिपूर्वक तथा ख़ुले तौर पर किया हो वहां प्रकाश या

वाये के ऐसे प्रवेश औरं उपभोग का, या ऐसे मार्ग, जलसरणी,

जल के उपयोग अथवा अन्य सुखाचार का

आत्यन्तिक और अजेय हो जाएगा। अधिकार

(2) बीसे वर्ष की उक्त कालावधियों में से हर एक ऐसी

कालावधि मानी जाएगी जिसका अन्त उस वाद के संस्थित

किए जाने के अव्यवहित पूर्व के दो वर्षौं के भीतर हुआ

हो, जिसमें यह दावा जिससे ऐसी कालावधि संबंधित है,

प्रतिवादित किया जाता है।

(3) जहां कि वह सम्पत्ति, जिस पर किसी अधिकार

का दावा उपधारा (1) के अधीन किया जाता है, सरकार

की हो वहां वह उपधारा ऐसे पढ़ी जाएगी मानो बीस

वर्ष" शब्दों के स्थान" "तीस वर्ष" शब्द प्रतिस्थापित

कर दिए गए हों।

स्पष्टीकरण- कोई भी बात इस धारा के अर्थ के अन्दर

विघ्न नहीं है जबकि दावेदार से भिन्न किसी व्यक्ति के

कार्य द्वारा हुई बाधा के कारण उस कब्जे या उपभोग

का वास्तविक विच्छेद नहीं हो जाता और जब तक कि,

उस बाधा की तथा बाधा डालने वाले या बाधा डाला

जाना प्राधिकृत करने वाले व्यक्ति की सूचना दावेदार

को हो जाने के पश्चात् एक वर्ष तक वह बाधा सहनन

कर ली गई हो या उसके प्रति उपमति न रही हो।

26. अनुसेवी सम्पत्ति के उत्तरभोगी के पक्ष से

अपवर्जन-जहां कि कोई भूमि या जल जिसमें जिसके

ऊपर या जिससे कोई सुखाचार उपभुक्त या व्युत्तन्न

किया गया हो किसी आजीवन हित के अधीन या आधार

पर या इतनी अवधि पर्यन्त जो उसके अनुदत्त किए जाने

से तीन वर्ष से अधिक हो धारित रहा हो, वहां ऐसे

सुखाचार का उपभोग जितने समय तक ऐसे हित या

अवधि के चालू रहने के दीरान हुआ हो, उतना समयबीस वर्ष की कालावधि की संगणना में उस दशा है

अपवर्जित कर दिया जाएगा जिसमें उस पर के दावे का

प्तिरोध ऐसे हित या अवधि के पर्यवसान के अव्यवड्ित

पश्चात् तीन वर्ष के अन्दर ऐसे व्यक्तिद्वारा किया जाए

जो ऐसे पर्यवसान पर उक्त भूमिं या जल का हकदार

हो।

सम्पत्ति पर के अधिकार का निर्वापित होना-उस

ম.

कालावधि के पर्यवसान पर, जो किसी सम्पत्ति के कब्जे

का वाद संस्थित किए जाने के निमित्त किसी व्यक्ति के

लिए एतद्द्वारा परिसीमिते है, ऐसी सम्पत्ति पर उसका

১aey,

अधिकार निर्वांपित हो जाएगा।স

भाग 5 পवदक प्

प्रकीर्ण শদ

28. निरसन- निरसन तथा संशोधन अधिनियम 1974

(1974 का 56) की धारा 2 तथा पहली अनुसूची द्वारा

निरसित।

29. व्यावृत्तिया- (1) इस अधिनियम की कोई भी बात

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 (1872 का 9) कृी

धारा 25 पर प्रभाव नहीं डालेगी।//नप्रहि कल े )

(2) जहां कि कोई विशेष या स्थानीय विधि किसी वाद,

अपील या आवेदन के लिए कोई ऐसा परिसीमा काल

3 विहित करती है जो अनुसूची द्वारा विहित परिसीमा काल

से भिन्न है वहां धारा 3 के उपबन्ध ऐसे लागू होंगे भानो वह

परिसीमा काल अनुसूची द्वारा विहित परिसीमा काल हो;

तथा किसी वाद, अपील या आवेदन के निमित्त किसी

। विशेष या स्थानीय विधि द्वारा विहित परिसीमा काल का,

॥ अवधारण करने के प्रयोजन के लिए, धारा 4 से धारा 24)

S तक के (जिसके अन्तर्गत ये दोनों धाराएं भी आती हैं)

उपबन्ध केवल वहीं तक और उसी विस्तार तक लागू होँगि

जहां तक और जिस विस्तार तक वे उस विशेष या स्थानीय.

विधि द्वारा अभिव्यक्त तौर पर अपवर्जित न हों।

e (3) विवाह और विवाह-विच्छेद विषयक किसी त्समर

d प्रवृत्त विधि में अन्यथा उपबन्धित के सिवाय इस अधिनियम

की कोई भी बात ऐसी किसी विधि के अधीन के किसी वाद

या अन्य कारय्यवाही को लागु नहीं होगी।

of (4) धाराएं 25 और 26 तथा धारा 2 में की "सुखाचार

की परिभाषा, उन राज्यक्षेत्रों मैं उदभूत मामलौं को लागू

ne नहीं होगी जिन पर भारतीय सुखाचार अधिनियम, 1882

ay (1882 का 5) का तत्समय विस्तार हो।


he 30. उन वादों आदि के लिए उपबत्ध जिनके लए

od विहित कालावधि इण्ड्धियन लिमिटेशन ऐक्ट, 19D

ct, द्वारा विहित कालावधि से कम है-इस अधिनियम मेंअन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी--

(क) कोई भी वाद, जिसके लिए परिसीमा काल इण्डियन

लिमिटेशन ऐक्ट, 1908 (1908 का9) द्वारा विहित परिसीमा

काल से कम है: इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के अव्यवहित

पश्चात्वर्ती सात वर्ष की कालावधि और ऐसे वाद के लिए

इण्डियन लिमिटेशन ऐक्ट, 19०8 द्वारा विहित परिसीमा

काल, इन दोनों में से जिसका भी अवसान पहले हो जाए

उसके भीतर संस्थित किया जा सकेगा


परन्तु यदि किसी ऐसे वाद की बाबत सात वर्ष की उक्त

कालावधि का अवसान, उसके लिए इण्डियन लिमिटेशन

ऐक्ट, 1908 (1908 का 9) के अधीन विहित परिसीमा

काल के पहले हो जाए, और ऐसे वाद की बाबत इण्डियन

लिमिटेशन ऐक्ट, 1908 के अधीन उतने परिसीमा काल

के सहित, जिसका अवसान इस अधिनियम के प्रारम्भ

के पहले हो गया हो, सात वर्ष की उक्त कालावधि ऐसे

वाद के लिए इस अधिनियम के अधिन विहित कालावधि

से कम हो तो वह वाद इस अधिनियम के अधीन उसके

लिए विहित परिसीमा कात के भीतर संस्थित किया जा

सकेगा।


(ख) कोई भी अपील या आवेदन, जिसके लिए परिसीमा

काल इण्डियन लिमिटेशन ऐक्ट, 1908 (1908 का 9)

द्वारा विहित परिसीमा काल से कम है, इस अधिनियम

के प्रारम्भ होने के अव्यवहित पश्चात्वर्ती नब्बे दिन की

कालावधि और ऐसी अपील या आवेदन के लिए इण्डियन

लिमिटेशन ऐक्ट, 1908 द्वारा विहित परिसीमा काल में

से, जिसका भी अवसान पहले हो जाए, उसके भीतर

किया जा सकेगा।

31. वर्जित या लम्बित वादों आदि के बारे में

उपबन्ध-इस अधिनियम की कोई भी बात-

(क) ऐसे किसी भी वाद, अपील या आवेदन का संस्थित

या किया जाना शक्य नहीं करेगी जिसके लिए इण्डियन

लिमिटेशन ऐक्ट, 1908 (1908 का 9) द्वारा विहित

परिसीमा काल का अवसान इस अधिनियम के प्रारम्भ

होने के पहले हो गया हो; अथवा

(ख) ऐसे प्रारम्भ के पूर्व संस्थित या किए गए और ऐसे

प्रारम्भ के समय लम्बित किसी भी वाद, अपील या

आवेदन पर प्रभाव न डालेगी।

32, निरसन-निरसत् और संशोधन अधिनियम 1974

(1974 का 56) की धारा 2 और पहली अनुसूची द्वारा

निरसित।

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