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Probation of Offenders Act 1958

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Probation of Offenders  Act 1958 

     1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारंभ - 

    (1) यह अधिनियम अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 कहा जा सकता है।

    (2) इसका विस्तार '[* * * ]सम्पूर्ण भारत पर है। 

    (3) किसी राज्य में यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जिसे वह राज्य सरकार, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा नियत करें, और राज्य के विभिन भागों के लिए विभिन्न तारीखें नियत की जा सकेगी।


    2. परिभाषाएँ - 

    इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो--

    (क) "संहिता" से दण्ड प्रक्रिया संहिता अभिप्रेत है; 

    (ख) "परिवीक्षा अधिकारी" से वह अधिकारी अभिप्रेत है जो धारा 13 के अधीन परिवीक्षा अधिकारी नियुक्त किया गया है या उस रूप में मान्यता प्राप्त है ;

    (ग) "विहित" से इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा विहित अभिप्रेत है ;

    (घ) ऐसे शब्दों और पदों के, जो इस अधिनियम में प्रयुक्त है किन्तु परिभाषित नहीं है और दण्ड प्रक्रिया संहिता परिभाषित है, वे ही अर्थ होंगे जो उस संहिता में क्रमशः उनके हैं।

    3. कतिपय अपराधियों को भत्सना के पश्चात् छोड़ देने की न्यायालय की शक्ति -

     जब कोई व्यक्ति भारतीय दण्ड संहिता ( 1860 का 45) की धारा 379 या धिरा 380 या धारा 381 या धारा 404 या धारा 420 के अधीन दंडनीय कोई अपराध अथवा भारतीय दण्ड संहिता या किसी अन्य विधि के अधीन दो वर्ष से अनधिक के लिए कारावास या जुर्माने अथवा दोनों से दण्डनीय कोई अपराध करने का दोषी पाया जाता है और उसके विरुद्ध कोई पूर्व दोषरसिद्धि साबित नहीं होती है और जिस न्यायालय ने उस व्यक्ति को दोषी पाया है उसकी यह राय है कि मामले की परिस्थतियों को जिनके अन्तर्गत अपराध की प्रकृति और अपराधी का चरित्र भी है ध्यान रखते हुए ऐसा करना समीचीन है जब तब तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी वह न्यायालय उसे दंडित करने या उसे धारा 4 के अधीन सदाचरण की परिवीक्षा पर छोड़ने के बजाय उसे सम्यक् भत्सना के पश्चात छौड सकेगा।

    स्पपष्टीकरण - इस धारा के प्रयोजनों के लिए किसी व्यक्ति के विरुद्ध पूर्व दोषसिद्धि के अन्तर्गत इस धारा या धारा 4 के अधीने उसके विरुद्ध किया गया कोई पर्व आदेश भी है।

    4. कतिपय अपराधियों को सदाचरण की परिवीक्षा पर छोड़ने की न्यायालय की शक्त 

    (1) जब कोई व्यक्ति ऐसा कोई अपराध करने का दोषी पाया जाता है जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय नहीं है और जिस न्यायालय ने उस व्यक्ति को दोषी पाया है उसकी यह राय है कि मामले की परिस्थितियों को जिनके अन्तर्गत अपराधी की प्रकृति और अपराधी का चरित्र भी है, ध्यान में रखते हुए उसे सदाचरण की परिवीक्षा पर छोड़ देना समीचीन हो तब तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी वह न्यायालय उसे तुरन्त दण्डित करने के ब य निदेश दे सकेगा कि उसे, भ्रतिभुओं के सहित या उनके बिना, उसके द्वारा ऐसा बंधपत्र देने पर छोड़ दिया जाए कि वह तीन वर्ष से अनधिक की ऐसी कलावधि के दौरान, जेसी न्यायालय निदिष्ट करें, आहुत किए जाने पर उपस्थित होगा और दण्डादेश प्रप्त करेगा और इस बीच परिशान्ति कायम रखेगा और सदाचारी रहेगा :

     परन्तु न्यायालय किसी अपराधी के ऐसे छोड़ दिए जाने का निदेश तब तक नहीं देगा जब तक उसका समाधान नहीं हो जाता कि अपराधी या उसके प्रतिभू का, यदि कोई हो, नियत निव्ास-स्थान या उस स्थान में नियमित उपजीविका है, जिस पर वह न्यायालय अधिकारिता का प्रयोग करता है या जिसमें अपरारधी के उस कालायधि के दौरान रहने की संभाव्यता है जिसके लिए वह बंधपत्र देता है।

    (2) उपधारा (1) के अधीन कोई आदेश करने से पूर्व न्यायालय, मामले के बारे में, संबंधित परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट पर, यदि कोई हो, विचार करेगा।

    (3) जब उपधारा (1) के अधीन आदेश किया जाता है, तब यदि न्यायालय की यह राय है कि अपराधीऔर जनता के हितों मैं ऐसा करना समीचीन है, तो वह उसके अतिरिक्त एक पर्यवेक्षण आदेश पारित

    कर सकेगा जिसमें यह निदेश होगा कि अपराधी आदेश में नामित किसी परिवीक्षा अधिकारी के पर्यवेक्षण के अधान एक वर्ष से कम न होने वाली ऐसी कलावाध के दौरान रहेगा जो उसमें विनिर्दिष्ट हो, और पर्यवेक्षण आदेश में ऐसी शरते अधिरोपित कर सकेगा जैसी वहअपराधी सम्यकू के लिए आवश्यक समझता है।

    (4) उपधारा (3) के अधीन पर्यवेक्षण आदेश करने वाला न्यायालय अपराधी से अपेक्षा करेगा कि छोड़े जाने से पर्व, वह ऐसे आदेश में विनिर्दिष्ट शर्तौ का और निवास-र्थान मादक पदार्थो से प्रवरित या किसी अन्य बात के बारे में ऐसी अतिरिक्त शर्तो को जैसी न्यायालय विशिष्ट परिरि्थितियों को ध्यान रखते हुए उसी अपराध की पुनरायृत्ति को या अपराधी द्वारा अन्य अपराधों के किए जाने को रोकने के लिए अधिरोपित करना ठीक समझे, पालन करने के लिए प्रतिभुओं के सहित या बिना एक बंधपत्र दे।

    (5) उपधारा (3) के अधीन पर्यवेक्षण आदेश करने वाला न्यायालय आदेश के निबंधनों और शर्तों को अपराधी को समझाएगा और प्रत्येक अपराधी, प्रतिभू, यदि कोई हो, और संबंधित परिवीक्षा अधिकारी को तुरन्त पर्यवेक्षण आदेश की एक प्रति देगा।

    5. छोड़े गए अपराधियों से प्रतिकर और खर्च देने कीअपेक्षा करने की न्यायालय की शक्ति -

    (1) धारा 3 या धारा 4 के अधीन अपराधी को छोड़ने का निदेश देने वाला न्यायालय, यदि ठीवक समझता है, तो उसी समय तक अतिरिक्त आदेश कर सकेगा जिसमें उसे निम्नलिखित संदत्त करने के लिए निदिष्ट किया जाएगा

    (क) अपराध के किए जाने से किसी व्यक्ति की हुई हानि या क्षति के लिए इतना प्रतिकर जितना न्यायालय युक्तियुक्त समझाता है; और

    (ख) कार्यवाहियों के इतने खर्चें जितने न्यायालय युक्तियुक्त समझता है।

    (2) उपधारा (1) के अधीन संदत्त किए जाने के लिए आदिष्ट रकम संहिता की धारा 386 और 387 के उपबंधों के अनुसार जु्मनि के रूप में वसूल की जा सकेगी।

    (3) उसी मामले से जिसके लिए अपराधी अभियोजित किया जाता है पैदा होने वाले किसी वाद का विचारण करने वाला सिविल न्यायालय नुकसानी दिलाने में उस किसी रकम को गणना में लेगा जो उपधारा (1) के अधीन प्रतिकर के रूप में संदत्त या वसूल की गई हो।

    6. इक्कीस वर्ष से कम आयु वाले अपराधियों के कारावास पर निर्बन्धन -

     (1) जब इक्कीस वर्ष से कम आयु वाला कोई व्यक्ति कारावास से (किन्तु आजीवन कारावास से नहीं) दण्डनीय कोई अपराध करने का दोषी पाया जाता है तब वह न्यायालय जिसने उस व्यक्ति को दोषी पाया है उसे कारावास से तब तक दण्डित नहीं करेगा जब तक उसका समाधान नहीं हो जाता है कि मामले की परिस्थितियों को, जिनके अन्तर्गत अपराध की प्रकृति और अपराधी का चरित्र भी है, ध्यान में रखते हुए यह वांछनीय नहीं होगा कि उससे धारा 3 या धारा 4 के अधीन व्यवहार किया जाए और यदि न्यायलय अपराधी को कारावास का कोई दण्ड देता है तो वह वैसा करने के अपने कारणों को अभिलिखित करेगा।

    (2) अपना यह समाधान करने के प्रयोजन के लिए कि क्या उपधारा 

        (1) में निर्दिष्ट किसी अपराधी से धारा 3 या धारा 4 के अधीन व्यवहार करना वांछनीय नहीं होगा, न्यायालय परिवीक्षा अधिकारी से रिपोर्ट मांगेगा और रिपोर्ट पर, यदि कोई हो, और अपराधी के चरित्र

    और शारीरिक तथा मानसिक दशा से सम्बद्ध उसे प्राप्त किसी अन्य जानकारी पर, विचार करेगा। 

    7. परिवीक्षा अधिकाकरी की रिपोर्ट का गोपनीय होना ; 

     धारा 4 की उपधारा (2) या धारा 6 की उपधारा (2) में निदिष्ट परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट गोपनीय मानी जाएगी : परन्त न्यायालय यदि ठीक समझाता है, तो उसका सार अपराधी को संसूचित कर सकेगा और उसे ऐसा साक्ष्य पेश करने का अवसर दे सकेगा जैसा रिपोर्ट में कथित विषय से सुसंगत हो।

    ৪. परिवीक्षा की श्तों में फेरफार - 

    (1) यदि किसी परिवीक्षा अधिकारी के आवेदन पर किसी न्यायालय की, जिसने किसी अपराधी के संबंध में धारा 4 के अधीन पारित किया है, यह राय है कि अपराधी द्वारा दिए गए किसी बंधपत्र की शर्तों में फेरफार करना उस अपराधी और जनता के हितों में समीचीन या आवश्यक है तो वह उस कालावधि के दौरान, जब बंधपत्र प्रभावी है, किसी समय उसकी अस्तित्वावधि को बढ़ा या घटा कर किन्तु इस प्रकार कि वह मूल आदेश की तारीख से तीन वर्ष से अधिक की न हो, अथवा उसकी श्तों को परिवर्तित करके या उसमें अतिरिक्त शतें अन्तःस्थापित करके उस बंधपत्र में फेरफार कर सकेगा :

    .परन्तु ऐसा कोई फेरफार अपराधी को या बंधपत्र में वर्णित प्रतिभू या प्रतिभुओं को सुनवाई का अवसर दिए बिना नहीं किया जाएगा।

    (2) यदि कोई प्रतिभू उपधारा (1) के अधीन किए जाने के लिए प्रस्थापित किसी फेरफार के लिए सहमत होने से इन्कार करता है तो न्यायालय अपराधी से नया बंधपत्र देने की अपेक्षा कर सकेगा और अपराधी यदि वैसा करने से .इन्कार करेगा या उसमें असफल होगा तो न्यायालय उसे उस अपराध के लिए दण्डित कर सवकेगा, जिसका वह दोषी पाया गया था।

    (3) इसमें इसके पूर्व अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी यदि किसी न्यायालय का जो किसी अपराधी के संबंध में धारा 4 के अधीन कोई आदेश पारित करता है परिवीक्षा अधिकारी द्वारा किए गए आवेदन पर समाधान हो जाता है कि अपराधी का अचरण ऐसा रहा है कि उसे और आगे पर्यवेक्षणाधीन रखना अनावश्यक हो गया है तो वह उसके द्वारा दिए गए बंधपत्र को उन्मोचित कर सकेगा।

    9. बन्धपत्र की श्तों के अनुपालन में अपराधी के असफल होने की दशा में प्रक्रिया -

     (1) यदि उस न्यायालय के पास जो किसी अपराधी के संबंध में धारा 4 के अधीन कोई आदेश पारित करता है या किसी न्यायालय के पास जो उस अपराधी की बाबत उसके मूल अपराध के संबंध में कार्यवाही कर सकता था, परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट पर या अन्यथा यह विश्वास करने का कारण है कि अपराधी अपने द्वारा दिए गए बंधपत्र या बंधपत्रों की शर्तों में से वकिसी का अनुपालन करने में असफल हुआ है

    तो वह उसकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर सकेगा या यदि ठीक समझता है तो उसके या प्रतिभूओं के, यदि कोई हो, नाम समन निकाल सकेगा जिसमें उससे या उनसे यह अपेक्षा कि जाएगी कि उस समय पर जो समनों में विनिर्दिष्ट हो उसके समक्ष उपस्थित हो।

    (2) न्यायालय, जिसके समक्ष अपराधी इस प्रकार लाया जाता है या उपरि्थित होता है या तो उससे मामले की समाप्ति तक के लिए अभिरक्षा में प्रतिप्रेषित कर सकेगा या उस तारीख को जो वह सुनवाई के लिए नियत करे उपरिथित होने के लिए उसे प्रतिभू के सहित या बिना जमानत मंजूर कर सकेगा।

    (3) यदि मामले की सुनवाई के पश्चात् न्यायालय का समाधन हो जाता है कि अपराधी अपने द्वारा दिए गए बंधपत्र की श्तों में से किसी का अनुपालन में असफल हआ है तो वह तत्काल -

    (क) उसे मूल अपराध के लिए दण्डित कर सकेगा; या 

    (ख) जहां असफलता प्रथम बार होती है वहां बंधपत्र के प्रृत्त रहने पर प्रतिकृल प्रभाव डाले बिना उस पर पचास रुपए से अनधिक की शार्ति अधिरोपित कर सकेगा। (4) यदि उपधारा (3) के खंड (ख) के अधीन अधिरोपित शास्ति ऐसी कालावधि के भीतर जैसी न्यायालय नियत करे संदत्त नहीं की जाती है तो न्यायलाय अपराधी को मूल अपराध के लिए दण्डित कर सकेगा।

    10. प्रतिभूओं के बारे में उपबंध ; 

     संहिता की धारा 122, 126, 126क, 406क, 514, 514क, 514ख और 515 के उपबंध इस अधिनियम के अधीन दिए गए बंधपत्रों और प्रतिभूओं की दशा में यावत्शक्य लागू होंगे।

    11. अधिनियम के अधीन आदेश देने के लिए सक्षम न्यायालय, अपील और पुनरीक्षण और अपीले और पुनरीक्षण न्यायालयों की शक्तियों -

     (1) संहिता में या किसी अन्य विधि मैं अन्तर्विष्ट किसी बात के होते

    हुए भी इस अधिनियम के अधीन आदेश, अपराधी का विचारण और उसे कारावास से दपण्डित करने के लिए सशक्त किसी न्यायालय द्वारा, और उच्च न्यायालय या किसी अन्य न्यायालय द्वारा भी, जब कि मामला उसके समक्ष अपील में या पुनरीक्षण में आए, दिया जा सकेगा।

    (2) संहिता में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी जहां धारा 3 या 4 के अधीन कोई आदेश अपराधी का विचारण करने वाले किसी न्यायालय द्वारा (जो उच्च न्यायालय से भिन्न हो) दिया जाता है वहां अपील उस न्यायालय को की जा सकेगी जिसको पूर्ववर्ती न्यायालय के दण्डादेशों से अपीलें मामूली तीर पर की जाती है।

    (3) किसी ऐसे मामले में जिसमें इक्कीरस वर्ष से कम आयु वाला कोई व्यक्ति कोई अपराध करने का दौषी पाया जाता है और वह न्यायालय जिसने उसे दोषी पाया है उसके संबंध में धारा 3 या धारा 4 के अधीन कार्ययाही करने से इन्कार करता है और उसके विरुद्ध जुर्माने के सहित या बिना कारावास का दण्डादेश पारित करता है जिसकी कोई अपील नहीं हो सकती या नहीं की जाती तो इस संहिता या किसी अन्य विधि में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी वह न्यायालय, जिसको पूर्वव्ती न्यायालय के दण्डादेशों से अपीलें मामूली तौर पर की जाती है, या तो स्वप्रेरणा से या सिद्धदोष व्यक्त अथवा परिवीक्षा अधिकारी द्वारा उसको आवेदन किए जाने पर  मामले का अभिलेख मंगा सकेगा और उसकी परीक्षा कर सकेगा तथा उस पर ऐसा आदेश पारित कर सकेगा जैसा वह ठीक समझता है।

    (4) जब किसी अपराधी के संबंध में धारा 3 या धारा 4 के अधीन कोई आदेश दिया गया है तब अपील न्यायालय  या उच्च न्यायालय अपनी पुरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग  करते हुए ऐसे आदेश को अपास्त कर सकेगा और उसके बदले में ऐसे अपराधी की बाबत विधि के अनुसार दण्डादेश पारित कर सकेगा : परन्तु अपील न्यायालय या उच्च न्यायालय पुनरीक्षण करते हुए उससे अधिक दण्ड नहीं देगा जो उस न्यायालय द्वारा दिया जा सकता था जिसके द्वारा अपराधी दोषी  पाया गया था।

    12. दोपसिद्ध में संलग्न, निरहता का हटाया जाना

     किसी अन्य विधि में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी कोई व्यक्ति, जो अपराध का दोषी पाया जाता ह और जिसके संबंध में धारा ३ या धारा 4 के उपबंधों कै अधीन कार्यवाही की जाता है, ऐसी विधि के अधीन अपराध की दोषसिद्धि से संलग्न, यदि वकोई हो, निरहता से ग्रस्त नहीं होगा: परन्तु इस धारा की कोई बात किसी ऐसे व्यक्ति को  लागू नहीं होगी जो धारा 4 के अधीन उसे छोड़ दिए जाने  के बाद, तत्पश्चात् मूल अपराध के लिए दण्ड़त किया जाता है।

    13, परिवीक्षा अधिकारी - 

    (1) इस अधिनियम के अधीन परिवीक्षा अधिकारी

    (क) वह व्यक्ति होगा जो राज्य सरकार द्वारा परिवीक्षा अधिकारी नियुक्त किया गया है या राज्य सरकार द्वारा उस रूप में मान्यता प्राप्त है; या

    (ख) वह व्यक्ति होगा जो राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त मान्यता प्राप्त सौसायटी द्वारा इस प्रयोजन के लिए उपलभ्य किया गया है; या

    (ग) किसी असाधारण मामलें में कोई अन्य व्यक्ति होगा जो न्यायालय की राय में उस मामले की विशेष परिरस्थितियों में परिवीक्षा अधिकारी के रूप में कार्य करने के योग्य है।

    (2) कोई न्यायालय जो धारा 4 के अधीन कोई आदेश पारित करता है या उस जिले का जिसमें आअपराधी तत्समय निवास करता है जिला मजिस्ट्रेट किसी भी समय, प्र्यवेक्षण आदेश में नामित किसी व्यक्ति के स्थान पर कोई परिवीक्षा अधिकारी नियुक्त कर सकेगा। स्पष्टीकरण इस धारा के प्रयोजनों के लिए प्रेसीडेंसी नगर को जिला समझा जाएगा और मुख्य प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट को उस जिले का जिला मजिस्ट्रेट समझा जाएगा।

    (3) परिवीक्षा अधिकारी इस अधिनियम के अधीन अपने कर्त्तव्यों के प्रयोग में उस जिले के जिसमें अपराधी तत्समय निवास करता है जिला मजिस्ट्रेट के नियंत्रण के अध्यधीन होगा।

    14. परिवीक्षा अधिकारियों का कर्त्तय

      परिवीक्षा अधिकारी ऐसी शर्तों और निर्बंधनों के जो विहित किए जाएं अध्यधीन रहते हुए

    (क) किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति की परिस्थितियों या घर के माहौल की जांच, उसके संबंध में कार्यवाही करने की सबसे उपयुक्त पद्धति अवधारित करने में न्यायालय की सहायता करने की

    दृष्टि से, न्यायालय के निदेशों के अनुसार करेगा और न्यायालय को रिपोर्ट देगा।

    (ख) परिवीक्षाधीनों और अपने पर्यवेक्षण के अधीन रखे गए अन्य व्यक्तियों का पर्यवेक्षण करेगा और जहां आवश्यक हो उनके लिए उपयुक्त नियोजन ढूुंढ़ने का प्रयास करेगा;

    (ग) न्यायालय द्वारा आदिष्ट प्रतिकर या खर्चौं के संदाय मैं अपराधियों को सलाह और सहायता देगा;

    (घ) उन व्यव्तियों को जो धारा 4 के अर्धीन छोड़ दिए गए हैं, ऐसे मामलों में और ऐसी रीति में, जो विहित की जाए, सलाह और सहायता देगा, और

    (ड) ऐसे अन्य कर्त्तव्य करेगा जो विहित किए जाएं।

    15. परिवीक्षा अधिकारियों का लोकसेवक होना ; 

      इस अधिनियम के अनुसरण में नियुक्त प्रत्येक परिबीक्षा अधिकारी और प्रत्येक अन्य अधिकारी भारतीय दणड साहिता (1860 का 45) की धारा 21 के अर्थ में लोकसेवक समझे जाएंगें।

    16. सदुभावपूर्वक की गई कार्यवाही के लिए संरक्षण-

     कोई भी बात या अन्य विधिक कार्यवाही किसी भी ऐसी बात के बारे में जो इस अधिनियम के या तद्धीन बनाए गए किन्हीं नियमों या आदेशों के अनुसरण में सद्भावपूर्वक की गई हो या की जाने वे लिए आशयित हो, राज्य सरकार या किसी परिवीक्षा अधिकारी या इस अधिनियम के अ्धीन नियुक्त किसी अन्य अधिकारी, के विरुद्ध न होगी।

    17. नियम बनाने की शाक्ति -

     (1) राज्य सरकार इस अधिनियम के प्रयोजनों को कार्यन्वित करने के लिए नियम, केन्द्रीय सरकार के अनुमोदन से, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, बना सकेगी।

    (2) विशिष्टतया या पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना ऐसे नियम निम्नलिखित विषयों में से सब या किसी के लिए उपबन्ध कर सकेंगे, अथात् -

    (क) परिवीक्षा अधिकारियों की नियुक्त उनकी सेवा के निबन्धन और शते तथा वह क्षेत्र जिसके भीतर उनको अधिकारिता का प्रयोग करना है;

    (ख) इस अधिनियम के अधीन परिवीक्षा अधिकारियों के कर्त्तव्य और उनके द्वारा रिपोटों का दिया जाना;

    (ग) वे शर्तें जिन पर सोसाइटियों को धारा. 13 की उपधारा (1) के खण्ड (ख) के प्रयोजनों के लिए मान्यता दी जा सकेगी;

    (घ) परिवीक्षा अधिकारियों को पारिश्रमिक और व्ययों का अथवा किसी सोसाइटी को जो परिवीक्षा अधिकारी उपलभ्य करती है साहय्यिकी का संदाय, और

    (ड) कोई अन्य विषय जो विहित किया जाना है या किया जाए।

    (3) इस धारा के अरधीन बनाए गए सब नियम पर्व प्रकाशन को शर्त के अध्यधीन होंगे और बनाए जाने के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र राज्य विधान-मेंडल के समक्ष रखे जाएंगे।

    18. कतिपय अधिनियमितियों के प्रवर्तन की व्यावृति - 

    इस अधिनियम की कोई बात सुधार विद्यालय अधिनियम, 1897 (1897 का 8) की धारा 31 या भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 (1947 का 2) की धारा 5 की उपधारा (2) [* * *1अथवा किशोर अपराधियों या बो्टल स्कूलों से संबद्ध किसी राज्य में प्रवृत्त किसी विधि के उपबंधों को प्रभावित नहीं करेगी।

    19. संहिता की धारा 562 का कतिपय क्षेत्रों में लागू न होना 

    - धारा 18 के उपबन्धों के अध्यधीन, संहिता की धारा 562, उन राज्यों या उनके भागों में ज़िनमें यह अधिनियम प्रवृत्त किया जाता है, लागू नहीं होगी।

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