मानहानि (Defamation)
परिभाषा
किसी व्यक्ति के सम्बन्ध
में किसी कथन को शब्दों में, लेख द्वारा,
चित्रों या महत्वपूर्ण संकेतों द्वारा प्रकाशित करना, जिसके कारण सम्बन्धित व्यक्ति के प्रति घृणा,
उपहास या अपमान का भाव पैदा हो और उसकी प्रतिष्ठा को धक्का लगे,
मानहानि (Defamation)
कहा जाता है। मानहानि में मौखिक या लिखित रूप में इस प्रकार कथन
किया जाता है कि जिस व्यक्ति के लिए कहा जाय, उसके प्रति लोगों के मन में घृणा, उपहास या अपमान के भाव पैदा हों और उससे उसकी या उसके
व्यवसाय की प्रतिष्ठा को क्षति हो। मानहानि भाषा का प्रयोग करके अथवा संकेत या व्यपदेशन (Representation)
द्वारा हो सकता है। 'व्यपदेशन' शब्द में चित्र बनाना, चित्र-संकेत या पुतला सभी आ जाते हैं। मानहानिकारक कथन की
कसौटी यह है कि उससे
सुनने वाले व्यक्तियों में उस व्यक्ति के प्रतिकूल विचार या भावनाएँ उत्पन्न हो।
प्रो० विनफील्ड के शब्दों में, जब किसी व्यक्ति
के सम्बन्ध में ऐसे कथन प्रकाशित किये जाते हैं जिससे वह व्यक्ति समाज के विवेकशील सदस्यों की दृष्टि
से साधारणतया गिर जाय अथवा जिसके परिणामस्वरूप लोग उसकी उपेक्षा करने लगें तो ऐसे कथन को
मानहानिकारक कहा जाता है। इस प्रकार यदि किसी कथन से किसी व्यक्ति के व्यवसाय या कारोबार या वृत्ति
को ठेस पहुँचती हो या उसकी प्रतिष्ठा का अनादर हो तो वह कथन मानहानि की कोटि में आयेगा। उदाहरणार्थ,
किसी व्यक्ति की योग्यता में कमी का आक्षेप
लगाना अथवा ईमानदारी की
कमी या कपटपूर्ण आचरण का आरोप लगाना मानहानि कहा जायेगा।
सामण्ड के अनुसार मानहानि के अपकृत्य में किसी अन्य व्यक्ति के सम्बन्ध में
बिना किसी कानूनी औचित्य के असत्य तथा मानहानिकारक कथन का प्रकाशन किया जाता है। अण्डरहिल (Underhill)
के- अनुसार-"मानहानि प्रतिष्ठा को कलंकित करने
वाला ऐसा झूठा कथन है जिसका प्रकाशन किया गया हो और इस कथन से वादी की प्रतिष्ठा को क्षति
पहुँची हो तथा कथन को प्रकाशित करने का कोई विधिक औचित्य न हो।"
ड्रमण्ड जैक्सन बनाम बी० एम० ए०1 के नवीन वाद में न्यायालय ने मानहानि की व्याख्या इस प्रकार की है-
"क्या वादी के
प्रति कहे गये शब्द उसको समाज के विवेकशील व्यक्तियों की दृष्टि में घृणा, उपहास अथवा अनादर का पात्र बनाते हैं? अभिवक्ताओं को यह सूत्र भलीभाँति विदित है,
किन्तु कुछ स्थितियों में
नूर मुहम्मद बनाम
मुहम्मद जयजदीन3 के वाद में वर
तथा उसके पिता (मय बरात) बिना वधू को ऐसी राय प्रकट की जा सकती है कि जो किसी व्यक्ति के चरित्र
के लिए सामाजिक व्यवहार में तो खतरनाक हो सकती है, किन्तु जो सामान्य दृष्टि में उसको उपहास, घृणा अथवा अनादर का पात्र
नहीं बनाती।
उदाहरणार्थ, किसी को चालाक या धूर्त कहना विधिक तथा नैतिक दृष्टि से निंदनीय है, किन्तु फिर भी जूरी
के सदस्य को वह घृणा, उपहास अथवा मानहानि समझने के लिये प्रेरित नहीं कर सकता है।" यह बात महत्वहीन है कि जिस व्यक्ति के विरुद्ध मानहानिकारक कथन का
प्रकाशन होता है वह उस कथन पर विश्वास नहीं करता।
यद्यपि ऐसी दशा में जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में कथन का प्रकाशन किया गया है, उसकी प्रतिष्ठा नहीं गिरती; परन्तु ऐसे व्यक्ति को जब इसका पता चलता है तो उसे क्रोध आता है अथवा बुरा
लगता है।2 साथ लिए वापस चले गये। वधू को साथ न ले जाने का कारण यह था
कि उन्होंने वधू के पिता से नाचने वाली लड़की, जो बारात के साथ गयी थी, को दी जाने वाली धनराशि की माँग की किन्तु वधू
के पिता ने देने से इन्कार कर दिया। इस पर वर एवं उसके पिता दोनों
रुष्ट हो गये तथा वधू को छोड़ कर वापस चले गये। मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय ने इस कार्य को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 क
(ङ) के अन्तर्गत स्त्रियों
के सम्मान के विरुद्ध
बताया। इस वाद में यह अभिनिर्णीत किया गया है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के अन्तर्गत 'मानहानि' शब्द का प्रयोग साधारण अर्थ में किया गया है जिसकी व्याख्या संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त 'व्यक्ति की गरिमा' शब्द के संदर्भ में किया जाना चाहिए। चूँकि विवाह के बाद वधू को छोड़ दिया गया था इसलिए न्यायालय ने इसे 'व्यक्ति की गरिमा' विशेष रूप से 'स्त्रियों के सम्मान' के विरुद्ध करार दिया। इस प्रकार इस निर्णय से यह निष्कर्ष
निकलता है कि किसी व्यक्ति की गरिमा का, जिसे भारतीय संविधान के अन्तर्गत सुनिश्चित किया गया है, अनुचित अतिलंघन को मानहानि कहा जायेगा।
मानहानि के प्रकार-
अपमान-लेख तथा
अपमान-वचन मानहानि का अपकृत्य दो प्रकार का होता है-
अपमान-लेख (Libel) तथा
अपमान-वचन (Slander)।
अपमान-लेखमें कथन लिखित होता है या अन्य
प्रकार से होता है; जैसे-टाइप किया या छपा हुआ चित्र, फोटो, सिनेमा, फिल्म कार्टून, पुतला या किसी के दरवाजे पर कुछ लिख कर चिपकाना
आदि। अपमान वचन किसी के प्रति अपमानजनक कथन, संकेत या भाषण आदि द्वारा किया जाता है जिसे सुनकर लोगों के मन में व्यक्ति-विशेष के प्रति घृणा या अपमानजनक भाव पैदा हों। यह
कहा जाता है कि अपमान- लेख आँखों के लिए होता है और अपमान-वचन कानों
के लिए। अतः दोनों प्रकार की मानहानि पर भिन्न- भिन्न रूप में विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। इंग्लैण्ड और संयुक्त राज्य
अमेरिका में अपमान-वचन अपमान-लेख की तरह सदैव
दण्डनीय नहीं होते। भारत में अपमान-लेख और अपमान-वचन दोनों को एक समान समझा जाता है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 499 इस
सम्बन्ध में महत्वपूर्ण है।3
अपमान-लेख-मामले
(i) मनसन बनाम
टूसाड्रस लिमिटेड4 में एक व्यक्ति
के विरुद्ध कत्ल का आरोप लगाया गया, परन्तु वह उससे मुक्त कर
दिया गया। उसका मोम का पुतला कुख्यात अपराधियों के पुतलों के साथ रखकर कम्पनी में प्रदर्शित किया गया। मुकदमे में यह निर्णय किया
गया कि यह प्रदर्श-कार्य
मानहानिकारक था, क्योंकि कत्ल के मुकदमे में वह व्यक्ति निरणराध पाया गया था, फिर भी उसका पुतला अपराधियों के साथ रखकर प्रदर्शित करना
निस्सन्देह अपमानकारक था।
(ii) गारवेट बनाम हेलज वाटसन ऐण्ड विने लिमिटेड5 में वादी बाहर जाकर फोटो खींचा करता था और प्रतिवादी ने अपनी पत्रिका के बायें पृष्ठ पर वादी का
फोटो छापा जिसमें वह कैमरा लिये हुए औरतों को फोटो दिखाता हुआ
दिखाया गया था। उसके ठीक विपरीत दूसरे पृष्ठ पर एक नग्न स्त्री का चित्र दिया गया था। चित्रों के नीचे दिये गये शब्द इस प्रकार छापे गये
थे कि प्रथम फोटोग्राफ के नीचे से प्रारम्भ होकर दूसरे फोटो के नीचे समाप्त होते थे। उनमें लिखा था-"अतिरिक्त पैसा देने
पर खरीनदार उसी प्रकार कीएक नग्न महिला का फोटो प्राप्त कर सकता है।" वादी ने
इस पर मानहानि का बाद चलाया कि दोनों चित्र एवं उनके नीचे लिखे शब्द
यह प्रकट करते हैं कि वह अशोभनीय फोटो बनाने का व्यवसाय करता है। यह तय किया गया कि चित्र और उनके नीचे शब्द इस प्रकार रखे गये
थे कि वे अपमानजनक अर्थ दे सकें;
अतः प्रतिवादी का कार्य मानहानिकारक था।
अपमान-वचन अपमान-वचन में मानहानि कथन,
शब्दों या वचनों को बोलकर
की जाती है, या किसी अन्य अस्थायी रूप में किया जाता है। वे दृश्य या श्रव्य (सुनने योग्य) हो सकते हैं; जैसे-संकेत (इशारा) या न सुनने योग्य शब्द; पर उनसे महत्वपूर्ण ध्वनि निकलती हो। अपमानजनक कथन या तो वचनों द्वारा व्यक्त
किये जाते हैं या उसी रूप में अन्य माध्यम से।
उदाहरण के लिए- सिर हिलाना, आँख मटकाना, मुस्कराना या मुँह से फुसफुस करना। यदि अपमानकारी शब्द इस आशय से कहे
जाते हैं कि वे रिकॉर्ड कर लिये जायँ, तो केवल उच्चारण ही अपमान-वचन में आता है। रिकॉर्ड बन जाने और प्रकाशित हो जाने
पर उसका विनिर्माता (manufacturer) अपमान-लेख के
लिये दायी माना जा सकता है। संकेतों द्वारा किया गया अपमान-जनक कथन (जैसे गूँगे-बहरों की भाषा द्वारा बताया गया, जो आँखों को दिखाई पड़ता है,
कानों को नहीं सुनाई पड़ता है) अपमान-वचन की श्रेणी में आता है। अपमान-वचन कब स्वतः अनुयोज्य (Actionable per se) होते हैं ?-
अपलेख स्वतः अनुयोज्य होते हैं अर्थात् अपलेख के मामले में न्यायालय मानकर चलते
हैं कि वादी को नुकसान हुआ ही होगा,
स्वतः अनुयोज्य मामलों में वादी को यह साबित नहीं करना पड़ता कि
उसे नुकसान हुआ है; यहां न्यायालय मानकर चलता है कि नुकसान हुआ है। अर्थात् अपमान-लेख के विरुद्ध वास्तविक क्षति
के सबूत के बिना ही वाद लाया जा सकता है; लेकिन अपमान-वचन में विशेष क्षति का प्रमाण होने पर ही वाद लाया जा सकता है। केवल प्रतिष्ठा-हानि ही अपमान-वचन के लिए वाद का कारण नहीं
होती, कुछ वास्तविक क्षति होनी आवश्यक होती है, जो या तो आर्थिक हो या जिसका अनुमान आर्थिक रूप
में किया जा सके। कुछ विशेष परिस्थितियों में अपवचन
स्वतः अभियोज्य होता है।
अपमान-वचन की स्वतः अनुयोज्यता
अधोलिखित अवस्थाओं में अपमान-वचन स्वतः अनुयोज्य होता है और
वादी को विशेष क्षति साबित
करने की आवश्यकता नहीं
होती-
(1) जब वादी के
विरुद्ध कारावास द्वारा दंडनीय अपराध का अभ्यारोपण (Imputation) हो .- वादी के
विरुद्ध अभ्यारोपित अपराध कारावास से दण्डनीय हो, केवल जुर्माना से नहीं; जैसे-कत्ल, डकैती, चोरी, आगजनी आदि। इस प्रकार यदि मैं किसी व्यक्ति के विरुद्ध यह गलत कथन करूँ कि क
बिना रोशनी के साइकिल चलाने के अपराध में दोषसिद्ध
हुआ था और उसके ऊपर जुर्माना किया गया था तो यह अनुयोज्य अपमान-वचन नहीं होगा किन्तु यदि कहा जाय कि वह बलात्कार के अपराध में
दोषसिद्ध हुआ है तो वह अनुयोज्य अपमान-वचन हो जायगा।
(2) संक्रामक रोग से ग्रसित होने का आरोप-वादी के विरुद्ध यह मिथ्या कथन स्वतः अनुयोज्य होगा कि वह किसी संक्रामक तथा छूत के रोग से
पीड़ित है या कोढ़ से पीड़ित है,
यह कथन अपमान-वचन होगा। चेचक हसा नियम के अन्तर्गत नहीं आता।
(3) वादी के सम्बन्ध में कार्य, वृत्ति या
व्यवसाय के प्रति अक्षमता,
अयोग्यता या बेईमानी का आरोप लगाना स्वतः अनुयोज्या होता है-किसी व्यवसायी के विरुद्ध दिवालिया होने का
आरोप, शल्य- चिकित्सक (सर्जन) के
विरुद्ध आयोग्यता और अधिवक्ता (वकील) के विरुद्ध कानूनी अनभिज्ञता का क्षति हुई है, चाहे वे वचन उसके पद, वृत्ति, आजीविका, व्यापार या कारबार के सम्बन्ध में कहे गये हों
या नहीं; बशर्ते कि उन अपमान-वचनों के प्रकाशन के समय
वादी उन अपमान-वचनों से सम्बन्धित पद पर या आजीविका, वृत्ति आदि में संलग्न रहा हो। इस अधिनियम के पूर्व स्थिति
यह थी कि ऐसे अपमान-वचन, जिनका प्रयोग
वादी के व्यापार, रोजगार, कारोबार या पद के सम्बन्ध में नहीं किये गये
होते थे, बिना विशेष क्षति के प्रभाव के
अनुयोज्य नहीं होते थे, भले ही ऐसे अपवचन
से स्वाभाविक रूप से किसी के पद, रोजगार या कारोबार को क्षति
पहुँची हो। जोन्स बनाम जोन्स6 के वाद में वादी
एक स्कूल में अध्यापक था। प्रतिवादी ने उसके ऊपर स्कूल की एक महिला कर्मचारी के साथ
अनैतिक व्यवहार का मिथ्या आरोप लगाया। वादी कोई विशेष क्षति साबित नहीं कर सका। हाउस ऑफ
लार्ड्स ने प्रतिवादी को दायी नहीं माना। परन्तु अब स्थिति भिन्न है। डिफेमेशन ऐक्ट,
1952 के पारित होने के पश्चात् यदि जोन्स बनाम जोन्स की तरह के तथ्य
न्यायालय के सम्मुख आवें, तो ऐसे मामलों
में प्रतिवादी दायी माना जायेगा, यद्यपि प्रतिवादी का कथन वादी के
व्यापार, पेशा आदि से प्रत्यक्ष
रूप से सम्बन्धित न हो और वादी विशेष क्षति साबित न कर पाया हो। एन्जेल एच० एच० मुसेल कम्पनी7 के वाद में यह निर्णय दिया गया कि यदि किसी
व्यक्ति को व्यावसायिक
अक्षमता-सम्बन्धी बातें बढ़ा-चढ़ा कर कही जायें या यों कही जायें कि उक्त व्यक्ति
उस कार्य के लिये बिल्कुल
अक्षम है, जब कि यह सत्य नहीं है तो
ऐसा मानहानिकारक अभ्यारोपण स्वतः अनुयोज्य होता है। इंग्लैंड के मानहानि अधिनियम, 1952 के पूर्व यदि वादी अवैतमिक (Hohorary) पद धारण करता था तो अपमान-वचन तब तक स्वतः अनुयोज्य नहीं माना
जाता था जब तक कि वह उसको उस पद से हटाये जाने का आधार नहीं बनता था। किन्तु उपर्युक्त
अधिनियम ने अवैतनिक पद तथा स्थायी पद में अन्तर को समाप्त कर दिया।
(4) स्त्री या लड़की के विरुद्ध पर-पुरुष-गमन का अभ्यारोपण-इंग्लैंड की सामान्य विधि में असत्य दोषारोपण, अनैतिकता का आरोप या दुश्चरित्रता का मौलिक
आरोप कितना भी गम्भीर होने पर भी स्वतः अनुयोज्य नहीं था। दी स्लैण्डर ऑफ वीमेन ऐक्ट,
1891 (The Slander of Women Act, 1891) के द्वारा लांछन
से क्षति साबित करने की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया है। उपर्युक्त आरोपों के विरुद्ध वाद बिना विशेष
क्षति साबित किये ही लाया जा सकता है। भारतीय विधि-भारत में इस विषय में इंग्लैंड की सामान्य विधि
का अनुसरण नहीं किया जाता है। अपमान-लेख और अपमान-वचन दोनों प्रकार की मानहानियाँ भारतीय
दण्ड-संहिता की धारा 499 के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध
मानी जाती हैं और बिना विशेष क्षति साबित किये ही अनुयोज्य होती हैं। भद्दी गालियाँ-भारत में
कानून यह है कि जब किसी व्यक्ति को भद्दी गालियाँ दी जाती हैं तो वह केवल अपमानित ही नहीं
होता वरन् वह कृत्य मानहानिकारक भी होता है; अतएव स्वतः अनुयोज्य है।
पारवती बनाम
मन्नर8 के वाद में प्रतिवादी ने
वादी को गाली दी है और यह कहा कि वह अपने पति की विधित: विवाहिता पत्नी नहीं है और अनेक स्थानों
से दुश्चरित्रता के कारण निकाली जा चुकी है। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि प्रतिवादी नुकसानी
के लिए जिम्मेदार है, हालाँकि कोई
विशेष क्षति साबित नहीं की गई थी। अपमान-लेख तथा अपमान-वचन में अन्तर-इंग्लिश विधि के अन्तर्गत, अपमान-लेख और अपमान-वचन में अन्तर स्वीकार किया गया है।
इंग्लिश विधि के अनुसार, अपमान-लेख और
अपमान-वचन में कुछ
महत्वपूर्ण अन्तर इस प्रकार हैं-
(1) अपमान-लेख लिखित रूप में मानहानि होता है और अपमान-वचन बोले हुए शब्दों से मानहानि बनता है अपमान-लेख आँखों
के प्रति होता है और अपमान-वचन कानों को सुनाकर किया जाता है। अपमान-लेख में
मानहानिकारक विषय किसी स्थायी रूप में होता है; जैसे-मूर्ति, पुतला, कार्टून आदि जबकि अपमान-वचन (Slander)
अस्थायी रूप में होता है, जो या तो कहे हुए शब्दों के माध्यम से सुनने योग्य होता है, या महत्वपूर्ण संकेतों द्वारा दृश्य (देखने
योग्य) होता है।
(2) इंग्लैण्ड में,
अपमान-लेख दण्डनीय अपराध और सिविल क्षति दोनों की श्रेणी में आता है,
परन्तु अपमान-वचन केवल सिविल क्षति में आता है। भारत
में अपमान-वचन अपकृत्य या अपराध या दोनों की श्रेणी में आता है।
(3) अपमान-लेख (Libel) सभी मामले में अनुयोज्य होता है, जिसमें प्रकाशन ही पर्याप्त होता है। विशेष क्षति साबित करना आवश्यक नहीं होता।
लेकिन अपमान-वचन (Slander) में कुछ विशेष
मामलों के अतिरिक्त,
वाद लाने के लिए विशेष हानि साबित किया जाना
आवश्यक है।
(4) अपमान-लेख (Libel) में जानकारी और विद्वेष का भाव अधिक होता है, लेकिन अपमान-वचन (Slander) में क्रोध और उत्तेजना में आकर व्यक्ति कभी-कभी
अपशब्दों का प्रयोग भी कर जाता है।
(5) अपमान-लेख का वास्तविक प्रकाशन कभी-कभी अनजान व्यक्ति से भी होता है;
अतः वह इस अपकृत्य के लिये दायी नहीं होता। लेकिन
अपमान-वचनों का पुनर्प्रकाशन करने वाला व्यक्ति स्वेच्छा से काम करने वाला माना जाता है और इस अपकृत्य के
लिये दोषी होता है।
(6) इंग्लैण्ड में कानून में स्टेठ्यूट अफ लिमिटेशन (Statute of Limitation) के कारण 6 वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने पर अपमान-लेख (Libel) का वाद लाना नियम-विरुद्ध होता है और अपमान-वचन (Slander) का वाद दो वर्ष
के बाद नियम-विरुद्ध माना जाता है। भारत में अपमान-लेख और अपमान-वचन के वाद लाने के लिए एक-एक
वर्ष की अवधि होती है। भारतीय विधि के अन्तर्गत अपमान-लेख तथा अपमान-वचन में अन्तर
मान्य नहीं है। दोनों ही प्रकार के मानहानिकारक कृत्य अपकृत्य भी हैं और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 499 के अन्तर्गत अपराध भी। भारत में अपमान-लेख और
अपमान-वचन के बीच किसी प्रकार का अन्तर नहीं माना जाता और दोनों विशेष क्षति के लिए अनुयोज्य
हैं। इस प्रकार कलकत्ता, मद्रास, बम्बई और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालयों का यह मत
रहा है कि सिविल न्यायालयों में अपमान-लेख और अपमान-वचन दोनों ही कोई विशेष क्षति साबित
किये बिना स्वतः ही कार्यवाही योग्य हैं।
मानहानि के
आवश्यक तत्व मानहानि के वाद में वादी को क्या साबित करना चाहिए ?- प्रत्येक आलोचना मानहानिकारक नहीं होती। मानहानि का कानून किसी व्यक्ति के
भाषण या विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध भी नहीं लगाता है। कुछ अवस्थाएँ हैं जिनमें
व्यक्ति मानहानि के लिये दायी ठहराया जाता है। मानहानि करने के लिये दायी ठहराये जाने के लिये
निम्नलिखित तत्व सिद्ध किये जाने चाहिये- )
(1) कथन मानहानिकारक
हो।
(2) कथन का सम्बन्ध
वादी से होना चाहिये।–
(3) कथन प्रकाशित होना चाहिये।
(1) कथन मानहानिकारक हो कथन दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-वे कथन
जो अपने स्वाभाविक एवं साधारण अर्थों में मानिहानिकारक होते हैं और वे कथन जो अपने
प्राथमिक भाव (Primary Sense) में निर्दोष होते
हैं। कथन निम्नलिखित दशाओं
में अपने स्वाभाविक एवं साधारण भाव में मानहानिकारक समझा जाता है-
(क) वादी के विरुद्ध अन्य व्यक्तियों की राय या
दुर्भावनाओं को उत्तेजित करना। 141
(ख) वादी के प्रति सार्वजनिक घृणा, अपमान, उपहास, अनादर या गाली आदि की स्थिति लाना।
(ग) वादी के वैयक्तिक चरित्र या साख के प्रति दुर्भावनायें जागृत करना।
(घ) वादी की वृत्ति, व्यवसाय या रोजगार को क्षति पहुँचाना।
(ङ) ऐसी स्थिति उत्पन्न करना जिससे वादी से उसके
पड़ोसी या अन्य व्यक्ति भयभीत होने लगें, घबड़ायें या उसे पसन्द न करें या उससे कतरायें।
(च) अन्य व्यक्तियों की दृष्टि में वादी को गिरा देना। इस प्रश्न का कि क्या कोई कथन मानहानिकारक है
अथवा नहीं, परीक्षण यही है कि
सामान्य एवं विचारवान व्यक्ति
की दृष्टि में वादी का स्थान नीचा हुआ है या नहीं। क्रोधावेश में जल्दी से कही गयी
बातें एवं गालियाँ
अनुयोज्य मानहानि की कोटि में नहीं आतीं क्योंकि उनको सुनने वाले व्यक्ति उससे
किसी प्रकार का आशय
नहीं निकालते। वे शब्द जो किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाते हैं किन्तु चरित्र के
ऊपर किसी प्रकार का
आक्षेप नहीं डालते और न ही ख्याति पर असर डालते हैं जिससे वह लोगों की दृष्टि में
हेय एवं निंदनीय समझा
जाय, अपमानजनक नहीं समझे जाते।10 किन्तु जहाँ अपमान में ऐसे वचन कहे जाते हैं
जो उपहास तथा हीनता
के बोधक होते हैं, वहाँ वे अनुयोज्य
होते हैं। जहाँ 45 वर्ष की एक
विधवा के बारे में यह कहा गया कि वह वादी की बहू के मामा की रखैल है, वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह केवल गाली ही नहीं है
वरन् उसके चरित्र पर लांछन भी है जो मानहानि के अन्तर्गत आता है।11 यदि मानहानि दुर्भावना (Ill-will) से किया गया है तो क्षतिपूर्ति की राशि अधिक हो
जाती है।
उदाहरण के लिए जी० श्रीधर मूर्ति बनाम बेलारी म्युनिसिपल
कौंसिल तथा अन्य12 के वाद में प्रतिवादी ने दुराशय एवं दुर्भावनावश वादी के
विरुद्ध कुर्की का वारन्ट जारी करके वादी के फर्नीचर तथा पुस्तकें जब्त कर लिये।
वादी एक वकील था और
आयकर भी देता था। न्यायालय ने निर्णीत किया कि भले ही कुछ क्षति होने का सबूत नहीं दिया गया है
किन्तु उक्त परिस्थितियों में
पर्याप्त क्षतिपूर्ति दी जानी चाहिये।
टी० बी० राम सुब्बा अय्यर बनाम मोहीदीन13 के मामले में दैनिक समाचार-पत्र के प्रकाशक ने एक अपमानकारक तथ्य प्रकाशित किया जो वादी से
सम्बन्धित बताया गया। किन्तु बाद में उसने सही बात भी प्रकाशित की जिसमें उसने यह कहा कि अपमानकारक
समाचार वादी से सम्बन्धित नहीं था। इस बात के कारण न्यायालय ने प्रकाशक को नुकसानी के लिये
दायी नहीं ठहराया।
एम० एल० सिंघल बनाम प्रदीप माथुर13a (1996) के वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी व्यावसायिक व्यक्ति
के विरुद्ध अपनी शिकायत अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं कहा जा सकता है। प्रस्तुत वाद में वादी की
पत्नी का इलाज समुचित ढंग से नहीं होने के कारण वादी ने चिकित्सक के विरुद्ध शिकायत की थी। चिकित्सक
ने आरोप लगाया कि इस शिकायत के कारण उच्च अधिकारियों ने उसे एक अन्य वाद के लायक नहीं
माना अतः वादी मानहानि के लिए जिम्मेदार है। उच्च न्यायालय ने इसे मानहानि नहीं माना।
(2) कथन का सम्बन्ध वादी से होना चाहिये मानहानि के प्रत्येक वाद
में वादी को यह साबित करना चाहिये कि मानहानिकारक कथन सीधा उसी से सम्बन्ध रखता है।
आरोप मामले : इस सम्बन्ध में निम्नलिखित मामले महत्वपूर्ण हैं-
(i) ई० हलटन ऐण्ड कम्पनी बनाम जोन्स14 में एक समाचार-पत्र में 'डाईपी का जीवन' नामक एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें एक चर्च वार्डेन, आरटीमस जोन्स पर फ्रांस में एक अध्यापिका के
साथ रहने का दोषारोपण किया गया था। लेख के लेखक को इस नाम
से वास्तविक व्यक्ति के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं. था। उसने आरटीमस जोन्स को एक काल्पनिक व्यक्ति समझ कर लेख लिखा था। इत्तिफाक
से यह नाम वास्तविक व्यक्ति का निकला जो कि पत्रकार और
बैरिस्टर था। वे व्यक्ति जो उसे जानते थे, उन्होंने यह समझा कि लेख उससे सम्बन्धित है। हाउस ऑफ लार्ड्स ने यह
निर्णय दिया कि समाचार-पत्र इस अपमान- लेख (Libel) के लिए दायी है। अपने निर्णय में न्यायाधीश लारबर्न ने
अवलोकन किया कि इस आधार पर
प्रतिवादी अपना बचाव नहीं
कर सकता है कि वह मानहानि करने का आशय नहीं रखता था या उसका आशय वादी की मानहानि करने का नहीं था, यदि वास्तविक रूप से
दोनों बातें की हों। ('A person
charged with libel cannot defend himself by showing that he intended in his
breast not to defame or that he intended not to defame the plaintiff if in fact
he did both.')
(ii) न्यूस्टेड बनाम लण्डन एक्सप्रेस 15 में एक समाचार-पत्र ने एक द्विविवाह (Bigamy) के एक मुकदमे के परीक्षण (Trial) अर्थात्
कार्यवाही का हाल छापा था जिसमें केम्बरबेल में रहने वाला 30 वर्षीय युवक हैराल्ड न्यूजस्टैड को कैदी कहा गया। समाचार का विवरण
केम्बरबेल के आदमी के बारे में सत्य था, परन्तु वादी के सम्बन्ध
में गलत था। वादी ने मानहानि का वाद चलाया, जिसके निर्णय में यह कहा
गया कि कथित शब्दों का अर्थ वादी के लिए मानहानिकारक
था। उसकी सत्यता का वास्तव में किसी अन्य व्यक्ति से सम्बन्धित होना प्रतिवादियों को प्रतिवाद नहीं प्रदान करता और वे दायी हैं।
(iii) युसुपाफ बनाम मेट्रोगोल्डविन पिक्चर्स लिमिटेड16 में प्रतिवादी ने एक फिल्म "रेस्प्यू
टिन, द मैड मांक" (Resputin the Mad Monk) बनाई जो जार (Czar) और उसकी पत्नी से बड़ा सम्बन्ध रखती थी। फिल्म ने जार के दुर्गुणपूर्ण जीवन का चित्रण किया था, जिसमें उसने नटाशा नाम की काल्पनिक रूसी राजकुमारी के साथ
व्यभिचार किया। बाद में नटाशा के मंगेतर ने उसे मार डाला। रूस की राजकुमारी इरीना (Irina)
ने विवाह के पश्चात्
यूसुपाफ के नाम से मानहानि का वाद इस आधार पर चलाया कि फिल्म उसके जीवन से सम्बन्धित है। न्यायालय ने उसे 25,000 पाउण्ड की नुकसानी
दिलवायी।
(iv) हल्टन बनाम जोन्स के वाद ने लेखन-कार्य में आतंक की स्थिति उत्पन्न कर
दी। कैसीडी और न्यूस्टेड के वाद से यह स्थिति और भी उग्र हो
गयी। रसेल एल० जे० ने कैसीडी के वाद में यह कहा था कि अपमान-लेख के लिए दायित्व अपमानकर्त्ता के आशय पर आधारित नहीं होता, बल्कि अपमान के तथ्य पर आधारित होता है।
परिणामस्वरूप लेखकों और प्रकाशकों ने काफी शिकायत की, जिसका परिणाम यह हुआ
कि ब्रिटिश संसद ने
डिफेमेशन ऐक्ट, 1952 पारित किया। इस अधिनियम की धारा 4 यह
उपबन्धित करती है कि वह व्यक्ति, जिसने ऐसे शब्द प्रकाशित किये हैं, जिन्हें अन्य व्यक्ति के
प्रति अपमानपूर्ण 143 आरोपित किया गया
हो, संशोधन (amends) का प्रस्ताव कर सकता है, यदि वह साबित कर
सकता हो कि उस व्यक्ति के सम्बन्ध
में वे शब्द निर्दोष भाव से प्रकाशित किये गये थे। यदि ऐसा प्रस्ताव स्वीकृत हो
जाता है, तो प्रस्ताव करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध
पीड़ित पक्षकार द्वारा अपमान-वचन अथवा अपमान-लेख के लिये कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। यदि ऐसा प्रस्ताव पीड़ित
पक्षकार द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता तो मानहानि के वाद
में वह यह प्रतिवाद ले सकता है कि वादी के सम्बन्ध में वे शब्द विद्वेष भाव से
प्रकाशित नहीं किये गये थे और उसे
ज्यों ही जानकारी हुई कि शब्द वादी के सम्बन्ध में मानहानिकारक थे, उसने संशोधन का
प्रस्ताव रखा था और इस प्रस्ताव को वापस नहीं लिया।
(v) मार्गन बनाम
ओधम्स प्रेस लि० तथा अन्य17 के वाद में
न्यायाधीश मारिस ने अपने निर्णय में यह अवलोकन किया
कि यह निर्णय देने के लिए कि क्या शब्द युक्तिसंगत रूप से वादी के विषय में समझे गये थे, ज्यूरी उन सभी
साक्ष्यों पर विचार करेगी जिनसे विपरीत निष्कर्ष निकल सकता हो। परन्तु यदि यह निष्कर्ष निकलता हो कि पाठकों ने यह समझा था कि
प्रकाशित कथन वादी के विषय में था, तो यह बात महत्वहीन होगी कि क्या पाठकों ने विश्वास किया
था कि वे शब्द सत्य थे या केवल आंशिक रूप में सत्य थे। न्यायालय के सामने यह तर्क दिया गया कि यदि अ से
सम्बन्धित मानहानिकारक शब्द ब को प्रकाशित किये गये हों
लेकिन ब उन शब्दों की सत्यता पर विश्वास न करता हो, तो अ को कोई
वाद-हेतुक प्राप्त न होगा।
न्यायमूर्ति मारिस के अनुसार ऐसा तर्क पूर्णरूपेण गलत है।
(vi) ब्रूस बनाम ओल्डहम्स प्रेस लिमिटेड18 में प्रतिवादी ने अपने समाचार-पत्र में एक लेख
छापा जिसमें वायुयान-तस्करी
में कार्य करने वाली एक अंग्रेज महिला की चर्चा थी। वादिनी ने अपमान लेख के आधार पर वाद चलाया कि 'अंग्रेज महिला' (English woman) शब्द का आशय उस स्त्री से है जो वायुयान-तस्करी में अपराधिनी थी, यानी कि वादिनी। लेकिन लेख में दिये गये नाम और
वर्णन से वादिनी की पहचान नहीं
होती थी। वाद के निर्णय में कहा गया कि जिन तथ्यों और विषय पर वादी अपमान लेख (Libel) का वाद लाये, उससे यह जाहिर
होना चाहिये कि वे वादी के सम्बन्ध में थे। भारतीय मामले
-गुरवचन सिंह
बनाम बाबूराम19-इसमें गुरुवचन सिंह
साप्ताहिक उर्दू समाचार- पत्र 'सच' के सम्पादक एवं
प्रकाशक थे। उन्होंने अपने इस साप्ताहिक में एक लिखित जानकारी के अनुसार यह प्रकाशित किया कि सरहिन्द के तहसीलदार ने
निष्क्रान्त (Evacuee) सम्पत्ति बेचने में
बेईमानी की है; रसीद कम रुपये की दी है, किन्तु वास्तव में अधिक रुपये लिये हैं।
प्रकाशक ने इस समाचार के प्रकाशन के पूर्व इस बात की
सावधानी नहीं बरती कि यह बात कहाँ तक सच है और इस समाचार को प्रकाशित कर दिया। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रकाशक
गुरुवचन सिंह इसके लिये दायी होगा और वह गलत सूचना देने वाले से नुकसानी नहीं प्राप्त कर सकता। यह उसका
कर्त्तव्य था कि वह प्राप्त सूचना की सत्यता और असत्यता की जाँच करता है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो उसे
अपनी असावधानी का परिणाम भुगतना पड़ेगा।
मद्रास उच्च
न्यायालय ने टी० बी० राम सुब्बा अय्यर बनाम एम० अहमद मोहीदीन20 के मामले में यह प्रतिपादित किया है कि भारत में निर्दोष
प्रकाशित कथन के लिए कोई दायित्व नहीं उत्पन्न होता। इस मामले में प्रतिवादी ने अपने दैनिक अखबार 'दी दिलमार"' में यह समाचार
प्रकाशित किया था कि एक व्यक्ति जो लंका में
अगरबत्ती भेज रहा था, वहाँ से अगरबत्ती के रूप
में अफीम की तस्करी की थी। पुनः यह लिखा कि उसे लंका में
गिरफ्तार किया गया और मद्रास भेज दिया गया है। वादी ने जो लंका में सुगन्धित अगरबत्तियाँ भेजने का व्यवसाय करता था, प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद इस आशन से
दायर किया कि इस समाचार के प्रकाशन
से उसकी मानहानि हुई। प्रतिवादी का प्रतिवाद यह था कि वह वादी को जानताभी नहीं था
और न वह वादी की मानहानि का आशय ही रखता था। जब उन लोगों ने उस समाचार के मानहानिकारक होने की बात जानी तो उन्होंने पुनः यह संशुद्धि
प्रकाशित की कि समाचार-पत्र में प्रकाशित समाचार वादी के सम्बन्ध
में नहीं था। मद्रास उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस प्रकार के तथ्यों में प्रतिवादी दायी नहीं ठहराया जा सकता। भारत में
इंग्लैण्ड के विपरीत निर्दोष कथन के लिए दायित्व नहीं उत्पन्न होता।
इंग्लैंड में मानहानि
अधिनियम, 1952 (Defamation
Act, 1952) में 'निर्दोष प्रकाशन' अर्थात् बिना गलत इरादे के किये गये प्रकाशन को मानहानि के लिए जिम्मेदार नहीं माना, यदि प्रकाशक उसका समुचित खंडन व संशोधन प्रकाशित
कर देता है। हमारे न्यायालयों ने भी उपरोक्त कानून को न्यायोचित मानते हुए हमारे यहाँ भी लागू किया।20
a गर्भोक्ति (Innuendo)
कथित शब्द साधारणतया
अपमानकारक न होते हुए भी परिस्थितियों के सन्दर्भ में तथा कथन के ढंग को देखते हुए अपमानकारक हो सकते हैं। व्यंग्यात्मक शब्दों
का परिस्थितियों के आधार पर अर्थ निकाला जाता है।
गर्भोक्ति (Innuendo) का अर्थ है ऐसा कथन
जिसमें शब्द तो साधारणतया अपमानकारक न हों, पर वास्तव में अर्थ अपमानकारक हो। ऐसे कथन को वक्रोक्ति भी कहा जाता है। सामण्ड के अनुसार, वक्तव्यों को दो भागों
में बाँटा जा सकता है-(1) वे जो प्रथम दृष्ट्या (Prima facie) अपमानकारक होते
हैं अथवा (2) वे जो प्रथमदृष्टया निर्दोष होते हैं। प्रथम प्रकार के वक्तव्य अपने स्वाभाविक,
स्पष्ट एवं प्रमुख भाव
में मानहानिकारक होते हैं और स्वतः अनुयोज्य होते हैं जब तक कि प्रतिवादी उनके मानहानिकारक गुण का कोई सन्तोषजनक
स्पष्टीकरण न दे। कभी-कभी वक्तव्य प्रथमदृष्टया निर्दोष होते हैं
परन्तु उनमें निहित अर्थ उनको मानहानिकारक बना देता है। ऐसे वक्तव्य तभी अनुयोज्य होते हैं जब वादी उस वक्तव्य में
अन्तर्निहित मानहानिकारक अर्थ को पूर्णरूप से साबित कर
देता है। प्रथमदृष्टया निर्दोष शब्दों के आधार पर मानहानि की कार्यवाही साबित की जाती है तो वादी को वाद-पत्र में स्पष्ट रूप से शब्दों के
अन्तर्निहित अपमानजनक भाव को उल्लिखित करना आवश्यक होता है। मामले :
(i) कैपिटल ऐण्ड काउन्टीज बैंक बनाम हेन्टी21 में प्रतिवादी का बैंक के एक ब्रांच मैनेजर
से झगड़ा था। उसने अपने ग्राहकों को नोटिस भेजा कि
कैपिटल ऐण्ड काउण्टीज बैंक की किसी भी ब्रांच से भुगतान होने वाली चेक उसे स्वीकार नहीं होगी। इस नोटिस के कारण बैंक को नुकसान
हुआ। बैंक ने मानहानि का वाद चलाया, जिसमें बैंक ने यह दावा किया कि नोटिस का विवक्षित अर्थ बैंक के दिवालिया होने का संकेत करता था। निर्णय हुआ कि नोटिस के शब्द
अपमानकारक नहीं थे। क्योंकि सामान्य बुद्धि के व्यक्ति इस वक्तव्य से यह अर्थ नहीं निकाल सकते थे।
(ii) टॉली बनाम एफ० एस० फ्राइ ऐण्ड सन्स लिमिटेड22 में प्रतिवादी चाकलेट बनाने की एक फर्म थी और वादी शिल्प-प्रेमी गोल्फ का चैम्पियन था।
प्रतिवादी ने वादी का हास्यजनक फोटो छापा, जिसमें उसने पैण्ट की पिछली जेब से आधा बाहर निकला हुआ चाकलेट का
एक पैकेट दिखाया था, ताकि प्रतिवादी के माल का प्रचार हो। इसमें गर्भोक्ति का प्रभाव माना गया; क्योंकि चित्र से ऐसा प्रतीत होता था कि वादी ने अपने रेखाचित्र को इनाम प्राप्त करने वाले विज्ञापन में प्रयोग करने की अनुमति
दी थी और शिल्प-प्रेमी गोल्फर के रूप में अपनी प्रतिष्ठा को पैसा
प्राप्त करने के लिये बेचा था। वादी के हास्यजनक रेखाचित्र से गलत प्रभाव हुआ, क्योंकि वह विज्ञापन के
लिये प्रयोग किया गया था। इसमें यद्यपि विषय मानहानिकारकमानहानि नहीं था,
पर परिस्थितियों के
अनुसार मानहानिकारक हो सकता था। एक शिल्पी-गोल्फर चैम्पियन अपने नाम का इस प्रकार प्रयोग करके पैसा कमाने के कारण अपने मित्रों
की दृष्टि से गिर सकता था। गर्भोक्ति के आधार पर आम धारणा में यही बात आ सकती थी कि ऐसा विज्ञापन इसलिए दिया गया था कि पैसा
कमाया जा सके तथा हाउस ऑफ लार्ड्स ने प्रतिवादी को वादी के
प्रति मानहानि के लिए दायी माना।
(ii) कैसीडी बनाम डेली मिरर न्यूज पेपर्स लि०23 में प्रतिवादी ने एक फोटो छापी और नीचे यह कथन छापा कि-"मिस्टर एम० कारीगन, घुड़दौड़ के एक घोड़े के स्वामी हैं तथा मिस एक्स० के साथ 和市布家 उनकी मँगनी घोषित की गयी है।" मिस्टर एम० कारीगन का
नाम मिस्टर कैसीडी भी था। मिस्टर कैसीडी वादिनी से विवाहित थे जो
अपने को श्रीमती कैसीडी अथवा श्रीमती कारीगन कहती थी। मिस्टर कैसीडी उसके घर अक्सर आया करते थे, परन्तु स्थायी रूप से
उसके पास नहीं रहते थे। लोग उसे मिस्टर कैसीडी की पत्नी के रूप में जानते थे। प्रतिवादियों को वादिनी के अस्तित्व का ज्ञान नहीं
था। वादिनी ने कहा कि प्रकाशित कथन का अर्थ है कि वह एक अनैतिक महिला
है और मिस्टर कारीगन के साथ अनैतिक सहवास करती है। इसे उसने अपनी
प्रतिष्ठा पर आघात साबित किया और 500 पाउण्ड नुकसानी के रूप में पाया। कोर्ट ऑफ अपील ने अवलोकन किया कि प्रतिवादीगण का अनभिज्ञ
होना उचित बचाव नहीं है।
गर्भोक्ति के नियम-अभिवचन
के कानून में यह अपेक्षित है कि जब कथन प्रथम दृष्टि में ही स्पष्ट न मालूम पड़े, लेकिन वादी उस पर मानहानि
का आरोप करे तो वादी को वाद में उन परिस्थितियों को दर्शित करना चाहिये जिनसे मानहानि का मामला बनता हो। उसे पारिभाषिक भाषा में
कथन की गर्भोक्ति साबित करना चाहिये। नियम यही है कि जब शब्द सामान्य अर्थ में मानहानिकारक नहीं होते तब वादी को
अपने दावे के कथन में गर्भोक्ति का आरोप लगाना चाहिये और उन
आवश्यक तथ्यों को साबित करना चाहिये जिनसे गर्भोक्ति में आरोपित
अर्थ कथित शब्दों का अर्थ प्रकट होता हो।
भारतीय मामला :
एम० एम० नारायन बनामे एस०
आर० नारायन24 वाले निर्णय
में एक तमिल पत्रिका में वादी के विरुद्ध यह लेख निकाला
गया था कि वह गोडसे-ग्रूप का था,
क्योंकि उसने पंडित नेहरू
के बारे में यह समझ कर कि उनका झुकाव मुसलमानों की ओर था, प्रकाशित किया-"जाफर नेहरू।" पत्रिका के लेखक प्रतिवादी ने पुनः लिखा कि "व्यक्तियों को उससे सावधान रहना चाहिये और
सी० आई० डी० द्वारा उसके
कृत्यों पर विशेष ध्यान
दिया जाना चाहिये।" यह निर्णय किया गया कि वह लेख स्वतः अत्यधिक मानहानिकारी था। पूरे गद्यांश को पढ़कर यही निष्कर्ष निकलता
था कि वादी हिंसावृत्ति वाला व्यक्ति था। व्यक्तियों के समुदाय की
मानहानि यह आवश्यक नहीं है कि मानहानि का प्रभाव स्पष्ट
या अस्पष्ट रूप से पूर्णरूपेण सीधा वादी पर ही पड़ता हो। एक पूरे समूह या व्यक्ति के समूह की भी मानहानि हो सकती है और उनमें
से प्रत्येक व्यक्ति मानहानि का वाद ला सकता है। लेकिन ऐसे मामले
में समूह इतना बड़ा न हो कि कथन के मानहानिकारक होने की वास्तविकता ही नष्ट हो जाये। यदि कोई अपमान-लेख व्यक्तियों के किसी
समूह के विषय में है तो कोई भी व्यक्ति उसके लिये दावा कर सकता
है यदि वह यह साबित कर दे कि वह लेख उस पर लागू होता है। परन्तु
जहाँ प्रतिवादी ने यह कहा था कि सभी वकील चोर होते हैं तो कोई भी वकील इस मानहानिकारक कथन के लिये दावा नहीं कर सकता जब तक कि वह यह
साबित न कर दे कि वह कथन
उसी के विषय में कहा गया
था।25 इस प्रकार, किसी फर्म के हिस्सेदार
या किसी सभा के सदस्य या मालिक के सेवक भी मानहानि का वाद ला सकते हैं।
मामले :
(i) ऐडवोकेट कम्पनी लिमिटेड बनाम आर्थर लेस्ली
एब्राहम25 में प्रतिवादी ने
पुलिस-अफसरों की नियुक्ति के सम्बन्ध में एक मानहानिकारक
पत्र प्रकाशित किया। ये दोनों पुलिस-आफिसर पैलेसटाउन में नौकरी कर चुके थे और वादी उनमें से एक था। इस मामले में यह निर्णय किया गया कि
मानहानि वादी को लक्ष्य करके की गई थी; अतः वादी नुकसानी पाने का हकदार था।
(ii) ल फानू बनाम मैल्कॉम्सन27 में प्रतिवादी ने एक लेख प्रकाशित किया था
जिसमें एक आइरिश फैक्ट्री में कर्मचारियों पर होने वाले
अत्याचारों का विवरण दिया गया था। परिस्थितियों पर विचार करने से जूरी को यह लगा कि यह लेख वादी की फैक्टरी को लक्ष्य बनाकर
लिखा गया था; अतः वादी का वाद सफल हुआ। जब मानहानिकारक बात व्यक्तियों के किसी समूह के
विरोध में होती है, तो कुछ विशेष अवस्था में ही व्यक्ति-विशेष को उसके लिये दावा करने का हक उत्पन्न होता है। जोलीविक तथा
लेविस ने इससे सम्बन्धित विधि को इन शब्दों में अभिव्यक्त
किया है- (अ) मुख्य बात यह है कि क्या प्रकाशित शब्द
वादी को विशेष रूप से संकेत करता है या वह एक विशेष समुदाय के लिए कहा गया है? दूसरी अवस्था में उस
समुदाय के सभी व्यक्ति वाद दायर कर सकते हैं। समुदाय का कोई एक व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि
बात उसके लिये कही गयी है या लिखी गई है। (स) प्रकाशित शब्दों के
लिये उक्त वर्ग के लोग वाद दायर कर सकते हैं बशर्ते वे यह साबित कर दें कि उक्त लेख से उक्त वर्ग के प्रति अन्य लोग विद्वेष
प्रदर्शित कर रहे हैं। (द) यदि प्रकाशित शब्दों का सम्बन्ध एक सीमित
वर्ग के व्यक्तियों जैसे, न्यासी, किसी फर्म के सदस्य, किसी विशेष बिल्डिंग के किरायेदार आदि से है, जिसका संकेत उस वर्ग के प्रत्येक सदस्यों से हो तो उस स्थिति में सभी मानहानि का वाद दायर कर सकते हैं। (य) क्या ऐसा कोई साक्ष्य है जिसके आधार पर यह धारणा बनायी जा सके कि प्रकाशित
शब्द वादी की ही ओर संकेत करते हैं; इस बात पर विचार करना न्यायाधीश के लिये विधि का प्रश्न होता है।
(3) कथन प्रकाशित
होना चाहिए प्रकाशित का अर्थ होता है किसी विषय को अन्य
व्यक्तियों की दृष्टि में लाना। यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के सम्बन्ध में कोई अपमानजनक बात लिखकर अपने पास या घर में
रख ले तो वह न तो किसी मुकदमे के लिये दायी होता है और न वह लेख
प्रकाशित ही माना जाता है। प्रकाशन के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह एक से अधिक व्यक्तियों की दृष्टि में आये।28 अपमानजनक
कथन के प्रकाशन में निम्नलिखित सिद्धान्त महत्व रखते हैं- (ब) जब किसी समुदाय या वर्ग के लिये कोई
मानहानिकारक बात प्रकाशित की जाती है, तब उससम्भोग करने के लिए
उसे एक पत्र लिखा और लिफाफे में बन्द कर उस पर पता लिख दिया। मामले में यह निर्णय हुआ कि प्रतिवादी मानहानि के लिये दायी नहीं था, क्योंकि वह किसी भी प्रकार का प्रकाशन नहीं था।
अरुमुगा मुदालियर बनाम अन्नामलाई मुदालियर30
के मामले में दो व्यक्तियों ने मिलकर वादी के प्रति अपमानजनक आशय का रजिस्ट्रीकृत पत्र भेजा। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित
किया कि यह प्रकाशन नहीं माना जायेगा। क्योंकि सह-अपकृत्यकर्त्ताओं
के बीच प्रकाशन नहीं होता। एक अपकृत्यकर्त्ता द्वारा दूसरे अपकृत्यकर्त्ता के प्रति प्रकाशन नहीं माना जा सकता। यह उस स्थिति में भी
प्रकाशन नहीं माना जायेगा जहाँ रजिस्ट्रीकृत पत्र वादी
के पते भेजा गया हो और यह एक तीसरे व्यक्ति के द्वारा अनधिकृत रूप से खोलकर पढ़ लिया जाता हो।
महेन्द्रराम बनाम हरनन्दन प्रसाद31 के वाद में वादी उर्दू नहीं जानता था। प्रतिवादी ने उर्दू में एक मानहानिकारक पत्र लिखकर उसके पास भेजा। वादी ने उस पत्र को
किसी अन्य व्यक्ति से पढ़वाया। यह धारित किया गया कि
प्रतिवादी तब तक दायी नहीं है जब तक कि यह साबित नहीं कर दिया जाता कि वह पत्र उर्दू लिपि में लिखते समय प्रतिवादी को इस बात की
जानकारी थी कि वादी को उर्दू लिपि का ज्ञान नहीं है और किसी अन्य व्यक्ति से पत्र पढ़वाना उसके लिए आवश्यक हो जायेगा। पति एवं पत्नी-इंग्लैण्ड के सामान्य कानून में किसी अन्य
व्यक्ति के विषय में पति द्वारा पत्नी से अथवा पत्नी द्वारा पति से
कहा गया मानहानिकारक कथन प्रकाशन नहीं माना जाता है, पति और पत्नी का एक व्यक्तित्व माना जाता है। वेनहैक बनाम मॉरगैम32 में कहा गया
था कि पति द्वारा अपनी पत्नी से कहे गये अपमानजनक शब्द मान-हानि
के अत्तर्गत नहीं आते। लेकिन- (क) पति के सम्बन्ध में
पत्नी को मानहानिकारक पत्र भेजना या पति को पत्नी के सम्बन्ध में मानहानिकारक पत्र भेजना मानहानिकारक माना जाता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में पति और पत्नी का व्यक्तित्व भिन्न-भिन्न माना जाता है (जोन्स बनाम विलियम)33। थीकर बनाम रिचर्ड्सन34-इस वाद में प्रतिवादी ने वादी को एक पत्र में लिखा था
कि वह (वादिनी) वेश्या है और वेश्यागृह चलाती है।
पत्र इस ढंग से लिखा और भेजा गया था कि उसका पति उसे अवश्य पढ़े। वादिनी के पति ने पत्र खोला और पढ़ा। इसमें प्रतिवादी को मानहानि
के लिए दायी ठहराया गया। (ख) जब पति अपनी पत्नी के सम्बन्ध में कोई अपमानपूर्ण बात
इस प्रकार कहे कि किसी तीसरे व्यक्ति को उसका ज्ञान हो
जाय तो यह कथन प्रकाशन समझा जाता है और वाद चलाने योग्य होता है।
हथ बनाम हथ35 में प्रत्यर्थी (Respondent) ने अपनी पत्नी के नाम एक पत्र भेजा जिसमें
अपीलकर्त्ता के सम्बन्ध में मानहानिकारक बातें थीं। पत्र को
उसके बटलर ने पढ़ लिया। वाद लाये जाने पर न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि कोई व्यक्ति अपना कर्त्तव्य भंग करके पत्र खोलकर पढ़ ले
जबकि उससे ऐसा करने की आशा नहीं की जाती तो इस कार्य को प्रकाशन नहीं
कहा जायेगा। चूँकि बटलर ने इस मामले में उत्सुकतावश ऐसा किया था; अतः वादी का वाद असफल हुआ। मुख्य न्यायाधीश
लार्ड रीडिंग ने अवलोकन किया कि यदि कोई व्यक्ति अपने
कर्त्तव्य का उल्लंघन करके पत्र खोल देता है तो पत्र के प्रेषक द्वारा यह पत्र का प्रकाशन नहीं माना जाएगा। परन्तु यदि पत्र के ऊपर
"व्यक्तिगत" ("Private")
शब्द न लिखा हो और ऐसा पत्र वादी के पत्र-व्यवहार क्लर्क द्वारा कार्य करने के
दौरान खोला जाय तो यह प्रकाशन माना जायगा।