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Important Cases on Tort Law

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 अपकृत्य विधि पर महत्वपूर्ण मामले

कैसिडी (Cassidy)                                                                                                                       वादी

बनाम

स्वास्थ्य मन्त्रालय (Ministry of Health)                                                                              प्रतिवादी

[(1951) 2 K.B. 343]

परिचय-प्रस्तुत वाद में 'उपेक्षा' (negligence) और 'परिस्थितियाँ स्वयं बोलती हैं' (Res ipsa loquitur) के सिद्धान्त पर विचार किया गया है।

तथ्य-वादी एक साधारण मजदूर था। सन् 1948 में उसकी तीसरी और चौथी उंगलियों में ऐंठन (Contraction) हो गयी। डॉक्टर के परामर्श पर उसे अस्पताल में दाखिल कर दिया गया और उसकी उँगलियों का ऑपरेशन किया गया। लेकिन उसकी अन्य उँगलियों में भी रोग का असर हो गया। वादी का आरोप यह था कि ऑपरेशन के बाद उसकी चिकित्सा असावधानी से की गई। प्रतिवादी मन्त्रालय ने अपने मेडिकल-स्टाफ की असावधानी से इन्कार किया। विचारण-न्यायालय ने प्रतिवादी के पक्ष में निर्णय दिया। वादी ने इस निर्णय के विरुद्ध अपील की।

निर्णय-सम्माननीय न्यायाधीशों ने निर्णय देते हुए कहा कि चिकित्सालय के अधिकारी अपने सेवकों द्वारा उपेक्षा के लिये सेवा-संविदा (Contract of service) के अन्तर्गत दायी थे। उनके ऊपर यह साबित करने का भार था कि क्षति उनकी या उनके किसी व्यक्ति की असावधानी के कारण नहीं पहुँची। उपेक्षा के आधार पर चलने वाले मुकदमों में वादी पर यह साबित करने का भार होता है कि प्रतिवादी के उपेक्षापूर्वक कार्य करने के परिणामस्वरूप ही उसको (वादी को) क्षति पहुँची है लेकिन कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ भी आ जाती हैं जब वादी इतना तो साबित कर सकता है कि उसको दुर्घटनावश क्षति पहुँची है, किन्तु वह साबित करने की स्थिति में नहीं होता कि उसे प्रतिवादी द्वारा उपेक्षा के कारण क्षति पहुँची है, क्योंकि घटना की परिस्थितियाँ पूर्णतया प्रतिवादी को ही ज्ञात होती हैं और उनकी जानकारी वादी की पहुँच से परे होती है। ऐसी परिस्थितियों में कानून का यह सिद्धान्त कि 'परिस्थितियाँ स्वयं बोलती हैं' (Res ipsa loquitur) लागू होता है और वादी प्रतिवादी की उपेक्षा साबित करने के भार से मुक्त हो जाता है। प्रस्तुत वाद में यह सिद्धान्त लागू होता है और सबूत का भार प्रतिवादी के ऊपर आ जाता है कि वह यह साबित करे कि उसकी और सेवकों की ओर से उपेक्षा नहीं की गयी। प्रतिवादी ऐसा साबित करने में असफल रहा, इसलिए यह निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी वादी की नुकसानी के लिए दायी है।

अपील खारिज की गई।

बोरहिल (Bourhill)

बनाम

यंग (Young)

[(1945) ए० सी० 92]

परिचय-प्रस्तुत वाद में उस व्यक्ति के दायित्व के प्रश्न पर जिसकी उपेक्षा से मोटर-गाड़ियों के टकरा जाने की दुर्घटना के शोर से, किसी ऐसे व्यक्ति को जो खतरे की जगह से बहुत दूर था, लेकिन जिसे शोर से मानसिक ठेस पहुँची, विचार किया गया है।

तथ्य का निर्णय-एक मोटर साइकिल-चालक जो उपेक्षापूर्वक मोटर साइकिल तेज गति से चला रहा था, एक मोटरकार से टकराकर मर गया। अपीलार्थी जो दुर्घटना-स्थल से लगभग 45 फीट की दूरी पर खड़ी हुई ट्राम कार से अपनी टोकरियाँ बाहर निकाल रही थी, दुर्घटना के शोर से भयभीत हो गयी और उसे मानसिक ठेस पहुँची। उस समय वह आठ माह की गर्भवती थी और एक महीने के पश्चात् मरे बच्चे को जन्म दिया। उसने मोटर साइकिल-चालक के निष्पादक (Executor) (प्रस्तुत प्रत्यर्थी) के विरुद्ध नुकसानी के लिए दावा किया। निचली अदालतों ने उसका दावा रद्द कर दिया। उसने तब हाउस आफ लार्ड्स (House of Lords) में अपील किया।

निर्णय-मोटर साइकिल-चालक का यह कर्त्तव्य है कि वह मोटर साइकिल सड़क पर चलाते समय पूरी सतर्कता बरते ताकि किसी को क्षति न पहुँचे। लेकिन उसका यह कर्त्तव्य उन व्यक्तियों के प्रति है जिन्हें वह देख सकता है और जो जोखिम की जगह की सीमा में आते हैं। अपीलकर्ता जोखिम की जगह से काफी दूर थी। इसलिये उपर्युक्त मोटर साइकिल-चालक का कर्त्तव्य उसके प्रति अपनी उपेक्षा के परिणाम द्वारा पहुँची क्षति के लिये कानूनी तौर पर नहीं था। दुर्घटना के समय साइकिल-चालक अपीलार्थी को देख नहीं सकता था और वह जोखिम की जगह से काफी दूर थी। अपीलार्थी यह साबित करने में असमर्थ रही कि दुर्घटना के समय साइकिल-चालक का कोई कर्त्तव्य उसके प्रति था। लार्ड रसेल ने अपने निर्णय में कहा कि सावधानी बरतने का कर्त्तव्य केवल उन व्यक्तियों के प्रति होता है जिनके बारे में युक्तियुक्त रूप से सोचा जा सकता है कि वह वादी के उस कृत्य, जिससे कर्त्तव्य का उल्लंघन हो सकता है, प्रभावित होंगे।

अपील खारिज की गई।

(3)

बलभद्र सिंह तथा एक अन्य                                                                                                   अपीलार्थी

बनाम

बद्री शाह तथा एक अन्य                                                                                                         प्रत्यर्थी

(ए० आई० आर० 1926 पी० सी० 46)

भूमिका-विद्वेषपूर्ण अभियोजन के आवश्यक तत्व -(1) कार्यवाही की वादी के पक्ष में समाप्ति, (2) औचित्यपूर्ण तथा अधिसम्भाव्य कारण के बिना प्रतिवादी द्वारा अभियोजन, तथा (2) प्रतिवादी का दुर्भावनापूर्ण आशय।

तथ्य-अपीलार्थी तथा प्रत्यर्थी दोनों ही नम्बरदार तथा मोहीनुद्दीनपुर ग्राम के प्रमुख निवासी थे। वाद का उद्भव उसी ग्राम के निवासी एक व्यक्ति शिवबख्श की हत्या से हुआ जो अन्तिम बार 1 सितम्बर, 1919 की संध्या को जोखिम को जीवित देखा गया था। 20 सितम्बर को चार व्यक्ति अर्थात् बद्रीशाह, हजारी किसान, उसका 18 वर्ष का लड़का रघुनाथ और भारत किसान थाने पर पहुँचे। रघुनाथ ने तब अपराध स्वीकार किया जिसे पुलिस रोजनामचे में अभिलिखित दर्ज किया गया। संस्वीकृति (confession) यह थी कि अपीलार्थी ने उससे कहा था कि वह शिवबख्श को समाप्त कर दे तो वह उसे 500 रुपये देगा और यह कि 17 सितम्बर को उसने अपीलार्थी और तेजा नाई के साथ मिलकर शिवबख्श की हत्या कर दी। परन्तु परीक्षण के समय रघुनाथ ने यह कथन किया था कि बद्री शाह ने ही उससे शिवबख्श की हत्या के अभियुक्त रूप में, अपीलार्थियों का नाम ले लेने को कहा था। अपीलार्थियों का अभियोजन हुआ, परन्तु बाद में उनका उन्मोचन हो गया। तदुपरान्त अपीलार्थियों ने यह अभिकथन करते हुए कि पुरानी शत्रुता के कारण प्रत्यर्थियों ने ही रघुनाथ को सिखाया था कि अपीलार्थियों को फँसा दे, विद्वेषपूर्ण अभियोजन के कारण प्रत्यर्थियों के विरुद्ध नुकसानी का दावा कर दिया। सब-जज महोदय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वादीगण (अपीलार्थियों) ने अपना मामला साबित कर दिया था और उन्होंने वाद डिक्री कर दिया। अवध के जुडिशियल कमिश्नर ने न्यायालय में अपील किये जाने पर निर्णय पलट दिया और अभिनिर्धारित किया कि विद्वेषपूर्ण अभियोजन के आधार पर वाद दायर करने पर वादी को निम्नलिखित बातें साबित करना आवश्यक होता है-

(1) यह कि प्रतिवादी द्वारा उसका अभियोजन किया गया था।

(2) यह कि वह उस आरोप से, जिसके लिए उसका परीक्षण हुआ, निर्दोष था।

(3) यह कि बिन। किसी औचित्यपूर्ण तथा अधिसम्भाव्य कारण के उसका अभियोजन किया गया था।

(4) यह कि प्रतिवादी के विद्वेषपूर्ण आशय के कारण ऐसा हुआ था, विधि को कार्यान्वित करने के आशय से नहीं।

अपीलार्थियों ने तब प्रिवी काउन्सिल में अपील दायर की।।

निर्णय-प्रिवी काउन्सिल के माननीय न्यायाधीशों ने यह अवलोकन किया कि नुडीशियल कमिश्नर द्वारा कथित संख्या 2 त्रुटिपूर्ण है और उसका निम्नलिखित रूप में होना आवश्यक है-

"यह प्रश्नास्पद कार्यवाही वादी के पक्ष में समाप्त हुई यदि उसकी प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार समाप्त हो सकती थी।"

माननीय न्यायाधीशों ने यह भी अवलोकन किया कि सब-जज महोदय ने अत्यधिक सावधानी बरता कर निर्णय दिया है, परन्तु इस बात पर विचार करना उचित होगा-

"क्या बद्रीशाह ने ही अभियोजन पक्ष की सारी कार्यवाही का आविष्कार किया और उसे उकसाया?"

अपीलार्थी का अभियोजन प्रत्यर्थियों द्वारा नहीं किया गया था। किसी देश में जैसा कि भारत में है जहाँ अभियोजन वैयक्तिक कार्य नहीं है, विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिये वाद शाब्दिक भाव में किसी व्यक्ति के विरुद्ध दायर नहीं किया जा सकता। परन्तु प्राधिकारी को सूचना देना, जिसका स्वाभाविक फल अभियोजन ही होता है, ठीक नहीं किया है। वर्तमान वाद में पहले रघुनाथ ने पुलिस के समक्ष अपराध संस्वीकृत किया और फिर तेजा के दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के सम्बन्ध में। सफलता प्राप्त करने के लिये यह साबित करने का भार अपीलार्थियों पर है कि प्रत्यर्थियों ने ही रघुनाथ और तेजा को सिखाया और यह कि केवल बद्री शाह ने ही अपीलार्थियों को फँसाने के लिये पूरी कथा को रचा। साबित करने का यह भार बहुत भारी है और अपीलार्थियों ने उसे सन्तोषजनक रूप से साबित नहीं किया।

आदेश-माननीय न्यायाधीशों ने यह कारण पाया कि यद्यपि सन्देह के लिए गम्भीर कारण है तो भी वाद की सत्यता का पता लगाना सम्भव है और अपीलार्थियों ने इस सन्देहपूर्ण विषय को पर्याप्त ढंग से निर्णायक रूप से साबित किया था।

अपील खारिज की गयी।

 

(4)

दि एडवोकेट कम्पनी लिमिटेड                                                                                                अपीलार्थी

बनाम

 

आर्थर लेस्ली अब्राहम                                                                                                                               प्रत्यर्थी

(ए० आई० आर० 1946, पी०सी० 13)

भूमिका-यदि अभिकथित अपमानजनक शब्द व्यक्तियों के किसी वर्ग अथवा समुदाय के सम्बन्ध में कहे गये हों तो उस वर्ग का एक ही व्यक्ति वाद दायर नहीं कर सकता। नुकसानी के रूप में दी जाने वाली धनराशि तथा उठाई गई हानि में कुछ सम्बन्ध होना आवश्यक होता है।

तथ्य-अपीलार्थियों द्वारा अपने समाचार-पत्र 'बार्बडोस एडवोकेट' में प्रकाशित प्रत्यर्थी के अपमान-लेख के लिये प्रत्यर्थी ने नुकसानी की वसूली का दावा किया। उसने दो प्रकाशनों की-एक अप्रैल, 1913 के अंक में और दूसरा 15 अप्रैल, 1913 के अंक में- शिकायत की थी। बार्बाडोस के मुख्य न्यायमूर्ति (Chief Justice) ने, जिन्होंने वाद पर विचारण किया, 15 तारीख के प्रकाशन को अपमानजनक नहीं माना। दूसरे प्रकाशन के सम्बन्ध में जूरी ने वादी प्रत्यर्थी के पक्ष में अधिमत (Verdict) दिया और 2296 पाउन्ड 5 शिलिंग नुकसानी के रूप में दिलाये, यद्यपि वादी ने किसी विशेष नुकसानी की राशि का उल्लेख नहीं किया था। प्रतिवादी ने निम्नलिखित आधारों पर प्रिवी काउन्सिल में अपील की- (1) यह कि उन शब्दों का अर्थ प्रत्यर्थी के लिये मानहानिकारक (Defamatory) नहीं हो सकता था, (2) यह कि अग्राह्य साक्ष्य ग्रहण किया गया, क्योंकि प्रत्यर्थी के सभी साक्षियों से यह पूछा गया कि वे उन शब्दों के क्या अर्थ लगाते हैं और उन्होंने उस पर अपने-अपने भिन्न भिन्न कथन किए, और (3) यह कि नुकसानी की राशि अत्यधिक है।

निर्णय-प्रिवी काउन्सिल के माननीय न्यायाधीशों ने यह अभिनिर्धारित किया कि न्यायमूर्ति को इस प्रश्न में, साक्षियों से यह पूछने की कि वे शब्दों का क्या अर्थ लगाते हैं, अनुमति देना उचित नहीं था। परन्तु जब उस प्रति पर आपत्ति नहीं की गई तो अब प्रिवी काउन्सिल के समक्ष अपील में जूरी के अधिमत को अपास्त करने के लिये उसकी ग्राह्यता के प्रयत्न को आधार बनाना निष्फल है। यह भी अभिनिर्धारित किया गया

कि यदि उसके न्याय-निर्णयन पर यह पाया जाय कि अभिकथित अपमानजनक शब्दों के विषय में जो व्यक्तियों के किसी वर्ग या समुदाय के सम्बन्ध में प्रयोग में लाये गये थे, एक व्यक्ति वाद दायर नहीं कर सकता, जब तक कि ऐसी परिस्थितियाँ न हों जो यह प्रदर्शित करती हों कि वे उसी की ओर उद्दिष्ट थे। बार्बाडोस में केवल दो पुलिस-अधिकारी ऐसे थे जो पहले पैलेस्टाइन में सेवा-कार्य कर चुके थे और वादी उनमें से एक था, अपीलार्थी ने पैलेस्टाइन के पुलिस-अधिकारी की बार्बाडोस में नियुक्ति के सम्बन्ध में एक मानहानिकारक पत्र प्रकाशित किया था। माननीय न्यायाधीशों ने यह अवलोकन किया कि अपवाद सम्भवतः वादी की ओर उद्दिष्ट है। नुकसानी के विषय में अवलोकन किया गया कि नुकसानी के रूप में दिलवायी गई राशि तक पहुँची हानि में कुछ सम्बन्ध होना आवश्यक है। वर्तमान दृष्टान्त में मानहानि द्वारा जो क्षोभ (annoyance) हुआ, उसके कारण वस्तुतः कोई हानि नहीं पहुँची और अधिक लोगों का यह विचार होगा कि नुकसानी की राशि का 100 पाउन्ड रखना अत्यधिक होगा। इस राशि को दोगुना और तिगुना किया जा सकता है परन्तु दिलवायी गयी राशि का मानहानि के परिणाम से कोई सम्बन्ध नहीं था।

विनिश्चय-माननीय न्यायाधीशों ने नुकसानी से सम्बद्ध न्यायसभ्य-मण्डली (Jury) के अधिमत को अपास्त कर दिया जौर वाद में वादी को दिलवायी गयी नुकसानी की राशि तक सीमित कर नये सिरे से परीक्षण के लिये प्रतिप्रेषित (Remanded) कर दिया।

अपील अंशतया अनुज्ञात।

(5)

लुमले (Lumley)                                                                                                                          वादी

बनाम

गाइ (Gye)                                                                                                                    प्रतिवादी

(118 E.R. 749)

परिचय-प्रस्तुत वाद में ऐसे अपकृत्य के मामले पर विचार किया गया है जिसमें एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति को संविदा-भंग (Breach of contract) के लिए उकसाया, जिसके परिणामस्वरूप अन्य व्यक्ति को क्षति पहुँची।

तथ्य-वादी क्वीन्स थिएटर (Queen's Theatre) का ठेकेदार और मैनेजर था। उसने एक नर्तकी जोहाना बैग्नर (Johanna Wagner) से एक निश्चित अवधि तक अपने थिएटर में संगीत का प्रोग्राम देने के लिए करार (Agreement) किया जिसकी शर्त यह थी कि वह नर्तकी निश्चित अवधि-काल में अन्य किसी थिएटर में संगीत का प्रोग्राम नहीं करेगी। प्रतिवादी ने उक्त अनुबन्ध के विषय में जानते हुए विद्वेषपूर्ण भावना से उक्त अनुबन्ध के अवधि-काल में उक्त नर्तकी को वादी के थिएटर में काम करने से इनकार करने के लिए उकसाया और उक्त नर्तकी ने वादी के थिएटर में कार्य करना छोड़ दिया। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी के लिये दावा किया।

निर्णय-प्रतिवादी ने विद्वेष से मिस वैग्नर को जो वैध करार के अन्तर्गत वादी को अपनी व्यक्तिगत सेवाएँ निश्चित अवधि तक देने के लिये पाबन्द थी, उकसाया और उसने वादी के थिएटर में काम करना छोड़ दिया जिससे वादी को क्षति पहुँची, इसलिये वादी नुकसानी पाने का हकदार है। कानून का यह सर्वतोभावेन सिद्धान्त है कि यदि कोई व्यक्ति विद्वेष से अन्य व्यक्तियों के स्वामी व सेवक के सम्बन्ध में हस्तक्षेप करता है और सेवक को स्वामी की सेवा न करने के लिये उकसाता है, जिसके परिणामस्वरूप सेवक स्वामी की सेवा से इन्कार कर देता है, तो वह कृत्य क्षतिकारी है और उकसाने वाला व्यक्ति स्वामी की नुकसानी के लिए दायी है। ऐसे मामलों में विद्वेष का अनुमान मामले की वस्तुस्थिति से हो जाता है। प्रस्तुत मामले में प्रतिवादी के क्षतिकारी कृत्य से वादी को क्षति पहुँची जिसकी नुकसानी के लिए वह जिम्मेदार है।

अपील स्वीकार हुई।

 

(6)

ई० हल्टन ऐण्ड कम्पची (E. Hulton and Co.)                                                                     अपीलार्थी

बनाम

जोन्स (Jones)                                                                                                                            प्रत्यर्थी

[(1910) A.C.10]

परिचय-प्रस्तुत वाद में व्यंग्यात्मक अपमान-लेख प्रकाशित करने के सिद्धान्त (Principle of Innuendo) पर विचार किया गया है।

तथ्य-एक समाचार पत्र में 'आर्टिनस जोन्स' (Artenus Jones) शीर्षक के अन्तर्गत कहानी प्रकाशित हुई जिसमें यह कहा गया कि आर्टिनस जोन्स नाम का व्यक्ति, जो एक गिरजाघर का संरक्षक था, फ्रांस में एक स्त्री के साथ अवैध रूप से रहता था। संयोगवश आर्टिनस जोन्स नाम का एक वास्तविक व्यक्ति था जो कि बैरिस्टर तथा पत्रकार था। यद्यपि वह गिरिजाघर का संरक्षक नहीं था, लेकिन जिन व्यक्तियों ने यह समाचार पढ़ा, उन्होंने यही समझा कि उस समाचार-पत्र में छपी हुई कहानी उसी व्यक्ति के प्रति लिखी गयी है। इस पर आर्टिनस जोन्स ने समाचार-पत्र पर नुकसानी का मुकदमा चलाया। जूरी ने 1750 पाउंड की क्षति नुकसानी के रूप में देने का निर्णय वादी के पक्ष में दिया। अपीलीय-अदालत ने उक्त निर्णय की पुष्टि की। इसके विरुद्ध उच्चतर न्यायालय को अपील प्रस्तुत की गयी।

निर्णय-इस मुकदमे में यह निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी वादी को नुकसानी देने के लिए जिम्मेदार है, भले ही उसका इरादा वादी की मानहानि करने का न रहा हो। प्रस्तुत वाद में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया गया कि अपमान-लेख की कार्यवाही में प्रतिवादी की ओर से यह प्रतिवाद मान्य नहीं है कि उसका इरादा वादी की मानहानि करना नहीं था। यदि वे लोग जो वादी को जानते हैं, लेख को वादी से सम्बन्धित मानते हैं तो प्रतिवादी वादी होगा, भले ही उसका इरादा वादी की मानहानि करना न रहा हो। इस वाद को खारिज कर दिया गया। इस निर्णय में प्रतिपादित नियम को मानहानि अधिनियम, 1952 (The Defamation Act, 1952) द्वारा संशोधित कर दिया गया है। इस संशोधन के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अपमान-लेख (Libel) आदि प्रकाशित करता है और वाद में यह कहता है कि लेखादि उसने अनजाने में प्रकाशित कर दिये हैं, तो उसे इस बात का अवसर दिया जाता है कि अपनी भूल सुधार ले और जिस व्यक्ति की मानहानि हुई है, उससे क्षमा माँग ले। अधिनियम के अन्तर्गत वादी को यह अधिकार प्राप्त है कि वह क्षमा-याचना स्वीकार करे अथवा अस्वीकार करे। क्षमायाचना किन परिस्थितियों में स्वीकार की जाय और किनमें नहीं, इस सम्बन्ध में विशेष उपबंध इस अधिनियम में किए गये हैं।

(7)

क्रिस्टी तथा अन्य (Christie and Another)                                                                          अपीलार्थी

बनाम

लीचिन्सकी (Leachinsky)                                                                                           प्रत्यर्थी

[1847 A.C. 573]

परिचय-प्रस्तुत वाद में बिना वारण्ट की गैरकानूनी गिरफ्तारी के एक मामले पर विचार किया गया तथ्य-31 अगस्त, 1942 को अपीलार्थियों ने, जो लिवरपूल-पुलिस-आफिसर थे, प्रत्यर्थी को बिना वारण्ट गिरफ्तार कर लिया और अगले दिन तक पुलिस की हिरासत में रखकर मैजिस्ट्रेट के समक्ष प्रतिप्रेषण (Remand) के लिये पेश किया और उस पर अवैध कब्जा (Unlawful possession) का लिवरपूल कॉरपोरेशन अधिनियम, 1921 (Liverpool Corporation Act, 1921) के अन्तर्गत आरोप लगाया। मैजिस्ट्रेट ने उसे एक सप्ताह की हिरासत के लिये प्रतिप्रेषण में दे दिया और 8 सितम्बर को फिर एक सप्ताह के लिए जमानत पर प्रतिप्रेषण दे दिया। मिथ्या कारावास (False imprisonment) की कार्यवाही में अपीलार्थियों ने सामान्य कानून (Common Law) के आधार पर औचित्य की दलील दी जो असफल रही। 15 सितम्बर को 'अवैध कब्जा' के आरोप पर प्रत्यर्थी को परीक्षण के लिये अदालत में पेश किया गया, लेकिन बाद में इस आधार पर कि चोरी के आरोप में उस पर मुकदमा चलाया जायेगा, उक्त परीक्षण समाप्त हो गया और प्रत्यर्थी को उन्मोचित (Discharge) कर दिया गया। लेकिन पुलिस ने लीसेस्टर की पुलिस के आने तक उसे अपनी हिरासत में रोक रखा। लीसेस्टर (Leicester) की अदालत में प्रत्यर्थी पर मुकदमा चला जिसमें वह निर्दोष सिद्ध हुआ। प्रत्यर्थी ने अपीलार्थियों के विरुद्ध मिथ्या कारावास के अपकृत्य के लिये नुकसानी के लिये दावा किया।

निर्णय-हाउस ऑफ लार्ड्स (House of Lords) ने अपील-अदालत के निर्णय की पुष्टि करते हुये यह निर्णय दिया कि प्रत्यर्थी को बिना वारण्ट की गिरफ्तारी में उस समय औचित्य हो सकता था जब कि जिस आरोप में उसे गिरफ्तार किया गया, उसके विषय में उसे बता दिया जाता। इसलिये औचित्य की दलील जो रद्द की गयी, उचित नहीं है। दूसरे आरोप में प्रत्यर्थी की गिरफ्तारी उसके उन्मोचित (Discharge) होने पर उसे अवैध रूप से रोक रखने के विषय में गैरकानूनी थी, लेकिन वह तब तक नुकसानी की कार्यवाही का आधार नहीं बन सकती जब तक कि उसके प्रति दायित्व न साबित किया जाय।

पहली गिरफ्तारी के सम्बन्ध में अपील रद्द, लेकिन दूसरी गिरफ्तारी के सम्बन्ध में अपील स्वीकार।

(8)

हॉलीवुड सिल्वर फाक्स फार्म लि०                                                                                                        वादी

बनाम

एमेट                                                                                                                                                             प्रतिवादी

[ एल० आर० (1936) 2 के० बी) 468]

भूमिका-इस वाद का उद्भव प्रतिवादी द्वारा दुर्भावपूर्ण (Malicious) अभिप्राय से वादी को हानि पहुँचाने के लिये किये गये एक कार्य से हुआ। वह कार्य दोषपूर्ण था; अतः अनुयोज्य (Actionable) माना गया।

तथ्य-वादी ने सफेद लोमड़ियों के पालने का व्यवसाय करने के विचार से अपनी भूमि पर उन्हें रखने के लिये कुछ कक्ष तैयार किये। भूमि पर एक बोर्ड भी खड़ा किया गया जिस पर 'हॉलीवुड सिल्वर फॉक्स फार्म' खुदा हुआ था। यह बोर्ड प्रतिवादी के खेत से दिखाई देता था, जिसे वह भवन-निर्माण-योग्य भूमि के रूप में विकसित करना चाहता था। उसने वादी से बोर्ड हटा देने के लिये कहा। परन्तु वादी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। इस पर प्रतिवादी ने जोड़ा खाने के मौसम में जोड़ा खाने के कक्षों के इतने समीप जितना कि वह पहुँच सकता था, काली बारूद से बन्दूक दागी जिससे कि वादी की लोमड़ियों के एक बच्चा न हो सके। इसके फलस्वरूप लोमड़ियाँ भयभीत हो गयीं और जोड़ा खाने से विरत (बाज) रहीं। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध उपताप (nuisance) के लिये नुकसानी वसूली का वाद दायर किया और प्रतिषेधात्मक व्यादेश के लिये प्रार्थना की।

विनिश्चय-विनिश्चय किया गया कि जोड़ा खाने के मौसम में क्षेत्र के निकट अग्रिशस्त्र (Firearm) दागने पर अथवा अन्य प्रकार से कोलाहल (Loud noise) मचाकर न्यूसेंस करने से प्रतिवादी को रोकने के व्यादेश का वादी हकदार है।

निर्णय-प्रतिवादी ब्रैडफोर्ड कॉरपोरेशन बनाम पिकिल्स (1895 ए० सी० 587) के वाद पर निर्भर रहा और यह संकथन किया कि वह अपनी भूमि पर बन्दूक छुड़ाने के लिये अधिकृत है और यह कि यदि उसका आचरण दुर्भावपूर्ण रहा हो तो भी उसने कोई अनुयोज्य दोष नहीं किया है। उच्च न्यायालय ने इस संकथन को अस्वीकार कर दिया और यह अवलोकन किया कि प्रोद्धृत (cited) वाद ऐसा दृष्टान्त है जिसमें प्रतिवादी अपने वैध अधिकार का प्रयोग कर रहा था और ध्येय (Motive) सारहीन था; अतः वर्तमान दृष्टान्त पर उसका कोई प्रभाव नहीं है।

 उच्च न्यायालय ने कीबल बनाम हिकरनिगिल (उच्च न्यायालय, 1705 11 East 574n) के वाद में अपने निर्णय को आधार बनाया, जिसमें न्यायालय ने यह निर्णय किया था कि प्रतिवादी वादी के जलाशय से पक्षियों पर गोली चलाने और उन्हें व्याकुल करने के लिये उत्तरदायी है। यह अवलोकन किया गया कि सामान्य रूप से बन्दूक दागना एक बात है; परन्तु वादी को हानि पहुँचाने के लिये जान-बूझकर गोली चलाना एक भिन्न वस्तु और अपकृत्य है।

उच्च न्यायालय द्वारा प्रोद्धृत एक अन्य वाद एलेन बनाम फ्लड (1898) ए० सी० 1 था जिसमें यह अवलोकन किया गया था कि किसी स्वामी को अपनी भूमि पर कोलाहल करने का हक नहीं होता, क्योंकि कोई अधिकार जो विधि उसे प्रदान करती है, इस शर्त से विशेषित होता है कि उसका प्रयोग इस प्रकार किया जाना चाहिये क़ि पड़ोसियों अथवा जनसाधारण को कष्ट न हो। यदि वह इस शर्त का उल्लंघन करता है तो  अवधिक अपकृत्य करता है और यदि वह जानबूझ कर ऐसा करता है तो वह दुर्भावपूर्ण अपकृत्य का दोषी है। वादी प्रार्थित व्यादेश के लिए अनधिकृत ठहराया गया।

सिल्वर फाक्स के वाद में वादी के पक्ष में निर्णय किया गया।

 

(9)

बटरफील्ड                                                                                                                                                    वादी

बनाम

फारेस्टर                                                                                                                                                       प्रतिवादी

(103 ई० एल० 926)

भूमिका-यह वाद योगदायी उपेक्षा (contributory negligence) पर सबसे पहला वाद है, जिसमें यह निर्णय प्रतिपादित किया गया है कि ऐसा व्यक्ति जो सामान्य सावधानी बरतने से चोट से बच सकता हो, यदि वह कहे कि वह दूसरे की उपेक्षा से चोट खा गया तो वह किसी प्रकार की नुकसानी पाने का हकदार नहीं है।

तथ्य-प्रतिवादी ने अपने मकान की कुछ मरम्मत करने के लिये सड़क के आर-पार एक लट्ठा लगाया। सड़क के इस भाग से गुजरता हुआ वादी लट्ठे से भिड़ गया और घोड़े सहित गिर पड़ा। इस घटना में वादी को चोट आयी। घटना के समय अधिक अँधेरा नहीं था और अवरोध (obstruction) सौ गज की दूरी से देखा जा सकता था। इसका भी साक्ष्य था कि वादी बड़ी तेजी से घोड़े पर जा रहा था। यदि वह उचित तथा सामांन्य सावधानी से जाता तो वह दुर्घटना से बच सकता था।

निर्णय-स्वयं वादी की उपेक्षा (negligence) के कारण दुर्घटना हुई। वादी की ओर से उससे बचने के लिये सामान्य सावधानी नहीं बरती गयी यदि किसी अन्य व्यक्ति के दोष के कारण कोई अवरोध मार्ग में हो तो किसी पक्ष के लिये यह उचित न होगा कि उससे भिड़ जाय और उसका लाभ उठाये, जबकि वह स्वयं सामान्य चौकसी न रखे।

वादी के विरुद्ध निर्णय किया गया।

 

 

राइलैंड्स तथा एक अन्य                                                                                                        अपीलार्थींगण

बनाम

टॉमस फ्लेचर                                                                                                                                             प्रत्यर्थ

 

भूमिका-अपकृत्य (Torts) विधि में यह महत्वपूर्ण वाद है जिसने एक बहुत बड़ी सीमा तक कठोर (strict) दायित्व के अपकृत्यों का विकास किया है।

तथ्य-राइलैंड्स ने अपनी भूमि पर एक जलाशय के निर्माण के लिए स्वतन्त्र ठेकेदारों को नियोजित किया। काम के दौरान ठेकेदारों ने राइलैंड्स की भूमि पर कुछ पुरानी खान की सुरंगें और मार्ग पाये। उनका सम्पर्क राइलैंड्स के एक पड़ोसी फ्लेचर की खानों से था, परन्तु किसी को इस बात का सन्देह नहीं हुआ; क्योंकि वे मिट्टी से भरे जान पड़ते थे। आदमियों ने सुरंगों को मिट्टी से भर दिया, परन्तु हुआ यंह कि ऐसा करने में उन्होंने पर्याप्त कौशल (Skill) और सावधानी से काम नहीं लिया और जब जलाशय भरा गया तो पानी ने तलहटी (Bottom) को फोड़ दिया और सुरंगों में से होकर नीचे गया और कुछ पुरानी त्यक्त कोयले की खदानों में से बहता हुआ, जिसको किसी को पता न था, फ्लेचर की खदानों में भर गया। यह तथ्य के रूप में पाया गया कि यद्यपि राइलैंड्स ने उपेक्षा नहीं बरती थी, किन्तु ठेकेदारों ने ऐसा किया था।

फ्लेचर ने राइलैंड्स पर नुकसानी का दावा किया। एक्सचेकर न्यायालय (Exchequer Chamber) ने  बहुमत से यह अभिनिर्धारित किया कि फ्लेचर कुछ भी नुकसानी वसूल नहीं कर सकता। एक्सचेकर न्यायालय (Exchequer Chamber) की बेन्च ने एकमत से इस विनिश्चय को पलट दिया और फ्लेचर के पक्ष में निर्णय दिया। तदुपरान्त अपील की गयी।

विनिश्चय-हाउस ऑफ लार्ड्स ने एकमत से दूरदर्शितापूर्ण निर्णय द्वारा राजकोष न्यायालय (Exchequer Chamber) के निर्णय की पुष्टि की।

निर्णय-यदि भूमि के स्वाभाविक उपयोग में भूमि-तल पर या भूमिगत पानी इकट्ठा हो जाता और यदि प्रकृति के नियमों के अनुसार वह पानी वादी की खानों में चला जाता तो वादी शिकायत नहीं कर सकता था, परन्तु यदि प्रतिवादी भूमि का अस्वाभाविक उपभोग करना चाहे और ऐसा करने के परिणामस्वरूप वादी को कुछ हानि पहुँच जाय, तो प्रतिवादी उसके लिये जिम्मेदार होगा।

हाउस ऑफ लार्ड्स ने वाद में एक्सचेकर न्यायालय द्वारा लेखबद्ध की गयो विधि का, जो निम्नलिखित है, समर्थन किया- "विधि का सच्चा नियम यह है कि जो व्यक्ति अपने प्रयोजन के लिये अपनी भूमि पर  कोई ऐसी वस्तु लाकर उसे वहाँ संचय करके रखता है जो यदि वहाँ से निकल जाय तो हानिकारक हो तो उस व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि उस वस्तु को अपने जोखिम पर भूमि के भीतर रखे और वह यदि ऐसा नहीं करता तो वह प्रथमदृष्ट्या (Prima facie) उस समस्त हानि के लिये, जो उसके निकल जाने का स्वाभाविक परिणाम हो, उत्तरदायी है। वह यह कह कर अपने दोष से छूट सकता है कि उस वस्तु का पलायन (Escape) वादी की चूक के कारण हुआ या दैवी कृत्य का परिणाम था। परन्तु चूँकि इस मामले में कोई ऐसी बात नहीं है, यह जाँचना आवश्यक है कि क्या कहकर माफी मिल सकती है। उपर्युवत सामान्य नियम सिद्धान्त के अनुसार न्यायसंगत जान पड़ता है। उस व्यक्ति का, जिसका अनाज या घास पड़ोसी के मवेशियों द्वारा खा लिया जाय या जिसकी खान में पड़ोसी के जलाशय से पानी भर जाय या जिसकी भूमि के नीचे की कोठरी में पड़ोसी की टट्टी की गन्दगी भर जाय या जिसके निवास-स्थान की वायु पड़ोसी के क्षार के कारखाने के धुएँ से दूषित कर दी जाय, बिना किसी निजी चूक के ही नुकसान उठाता है और यह केवल औचित्यपूर्ण तथा न्यायसंगत जान पड़ता है कि वह पड़ोसी, जो अपनी सम्पत्ति पर ऐसी वस्तु लाकर रखता है (जो वहाँ प्राकृतिक रूप से नहीं थी) जो जब तक उसकी सम्पत्ति तक सीमित रहे, दूसरों को हानिकर न हो, परन्तु जो उसकी जानकारी में पड़ोसी की सम्पत्ति पर पहुँचते ही हानिकर हो जायेगी, हानि की पूर्ति के लिये विवश किया जाय, जो उस समय पैदा होता है जबकि वह उस चीज को अपनी सम्पत्ति के अन्दर ही परिसीमित कर रखने में सफल नहीं होता। यदि वह उसे वहाँ पर न लाया होता तो कोई शरारत न हुई होती और यह उचित ही प्रतीत होता है कि वह उसे अपने निजी जोखिम पर रखे, ताकि कोई क्षति न हो अन्यथा उसके स्वाभाविक तथा पूर्वानुमानित परिणामों के लिए वह उत्तरदायी होगा और हम लोग समझते हैं कि यही विधि का नियम है, चाहे इस प्रकार लाई गई वस्तु पशु, जल, गन्दगी अथवा बदबू हो।"

अपील खारिज की गई।

लेखबद्ध सिद्धान्त-वह व्यक्ति, जो अपने ही प्रयोजनों के लिये अपनी भूमि पर कोई ऐसी वस्तु लाता या संचय करता है जो यदि निकल जाय तो हानिकर हो, प्रथमदृष्टया उस समस्त हानि के लिये दायी है जो उस वस्तु के निकल जाने का स्वाभाविक परिणाम हो, चाहे उसने उपेक्षा की हो या नहीं।

(11)

ओवरसीज टैंकशिप (यू० के०) लिमिटेड                                                                 -प्रतिवादी अपीलार्थी

(The Wagon Mound)

बनाम

मोटर्स, डॉक ऐण्ड इन्जिनियरिंग कम्पनी लिमिटेड                                                             वादी प्रत्यर्थी

(1961 एस० सी० 388)

प्रस्तावना-प्रस्तुत अपील न्यू साउथ वेल्स के सुप्रीम कोर्ट के विनिश्चय के विरुद्ध अंतः परिषद प्रिवी काउंसिल में की गई थी तथा वैगन माउण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। इस मामले में महत्वपूर्ण पहलू (point) यह था कि कोई व्यक्ति अपनी त्रुटि के फल के लिए दायी होगा, यद्यपि उसे उस क्षति का आभास न रहा हो। माननीय न्यायाधीशों ने रि पोलेमिस के मामले (Re Polemis Case) से असहमत होकर यह निर्णय किया कि व्यक्ति पर उस अपकृत्य का दायित्व नहीं हो सकता यदि क्षति का आभास न रहा हो, यद्यपि वह परिणाम सम्भव रहा हो।

तथ्य-वादी अपीलार्थीगण जहाज के निर्माण तथा मरम्मत का कार्य सिडनी बन्दरगाह में करते थे तथा एक लकड़ी के मंच (wharf) के भी स्वामी थे। 1951 के अक्टूबर तथा नवम्बर में इनके कर्मचारी उसी मंच पर एक कॉरीमेल (Corimel) नामक जहाज की मरम्मत तथा वेल्डिंग कर रहे थे। उस मंच से लगभग 600 फीट की दूरी पर प्रतिवादी-अपीलार्थी का जहाज, वैगन माउण्ड, 29 अक्टूबर से 30 अक्टूबर, 1951 तक बँधा हुआ था। जहाज तेल ले जा रहा था तथा कर्मचारियों की गलती से पर्याप्त मात्रा में तेल खाड़ी में बह गया जो कि दो दिनों में समुद्र के काफी भागों में फैल गया। तेल प्रत्यर्थी के मंच के नीचे भी चला गया। 11 नवम्बर, 1951 को कुछ खराब रुई के चिथड़े में, जो मंच के नीचे बह कर गये थे, ऊपर के पिघलते हुए द्रव्य के गिरने के कारण आग लग गई जिससे बहते हुये तेल में भी आग लग गई। फलस्वरूप उस मंच तथा कुछ औजारों की क्षति हो गई।

प्रत्यर्थियों ने नुकसानी का दावा किया। यद्यपि विचारण न्यायाधीश (Trial Judge) ने यह उद्धृत किया कि प्रतिवादियों को यह मालूम नहीं था तथा न ही वे ऐसी आशा कर सकते थे कि पानी पर तैरते तेल में आग लग जायेगी फिर भी आग का कारण प्रतिवादियों के कर्मचारियों की गलती के फलस्वरूप है; अतएव विचारण न्यायाधीश ने रि पोलेमिस मामले पर भरोसा करके नुकसानी देने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपील खारिज कर दिया। अतएव यह प्रस्तुत अपील अंतः परिषद् (Privy Council) में की गई।

निर्णय-अपीलार्थियों की ओर से यह अभिकथन प्रस्तुत हुआ कि उक्त तेल जलने का ताप 170°F होता है तथा पानी पर तैरता हुआ तेल उस सीमा तक प्रज्ज्वलित नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त परीक्षण- न्यायाधीश के अनुसार अपीलार्थियों को इसकी आशा नहीं थी कि पानी पर तैरते हुए तेल में आग लग जायगी। अतएव क्षति का उन्हें कोई आभास नहीं था। अपीलार्थियों की त्रुटि दावे के योग्य त्रुटि नहीं हो सकती, क्योंकि भूल उस कार्य को कहते हैं जो कि कर्त्तव्यों को भंग करे तथा जिसके परिणाम का कर्त्ता को आभास हो। उक्त पोलेमिस केस के अनुसार भी नुकसानी तभी ली जा सकती है जब कि क्षति गलती करने वाले के कार्य से सीधे सम्बन्धित हो।

इसके विरुद्ध प्रत्यर्थियों का कहना यह था कि वे विचारण न्यायालय के विनिश्चय को ठहराये जाने के हकदार हैं, क्योंकि अपीलार्थियों की त्रुटि से ही उनको क्षति हुई है।

 इस मामले में निर्णय देते हुए माननीय न्यायाधीश वाइकाउण्ट सायमण्ड ने कहा कि इसमें सन्देह नहीं कि रि पोलेमिस केस के विनिश्चय के अनुसार यदि कोई प्रतिवादी त्रुटि का अपराधी हो तो वह समस्त परिणामों के लिये भी दायी होता है, चाहे उसका उसे आभास रहा हो अथवा न रहा हो। जब से पोलेमिस के मामले का निर्णय हुआ तब से बहुत-कुछ कहा जा चुका है जिससे अब वह निर्णय अच्छी विधि (Good law) नहीं रह गयी।

न्यायालय के मतानुसार एक विवेकशील व्यक्ति का पूर्वानुमान ही दायित्व के निर्धारण की उचित कसौटी है। यदि एक विवेकशील व्यक्ति क्षति का पूर्वानुमान नहीं कर सकता है तो प्रतिवादी के उपेक्षापूर्ण कृत्य का सीधा परिणाम होने के बावजूद वादी को नुकसानी नहीं मिल सकती है। न्यायालय ने कहा-"It is a principle of civil liability, subject only to qualifications which have no present relevance that a man must be considered to be responsible for the probable consequences of his act. To demand more of him is too harsh a rule, to demand less is to ignore that civilized order requires the observance of a minimum standard of behaviour.

It is the foresight of a reasonable man which alone can determine responsibility. The Polemis Rule by substituting 'direct' for "reasonably foreseeable" consequence leads to a conclusion equally illogical and unjust."

माबजीय न्यायाधीशों से अपील स्वीकार करने की सिफारिश तथा प्रत्युत्तरदाता से अपील को खारिज दिलाने की सिफारिश किया।

(12)

स्टेट ऑफ राजस्थान                                                                                   -अपीलार्थी (प्रतिवादी)

बनाम

श्रीमती विद्यावती तथा अन्य                                                                                  प्रत्यर्थी (वादी)

(ए० आई० आर० 1962 एस० सी० 933)

परिचय-यह मामला राज्य के एक सेवक द्वारा नियोजन के दौरान किये गये अपकृत्यपूर्ण कार्य के बारे में है तथा राज्य के प्रतिनिधिक दायित्व (Vicarious liability) के बारे में भी है।

तथ्य-अपीलार्थी राज्य का लोकूमल नामक एक अस्थायी कर्मचारी परिवीक्षा (Probation) पर मोटर ड्राइवर के रूप में काम कर रहा था। फरवरी, 1972 में यह एक सरकारी जीप-कार के ड्राइवर के रूप में नियुक्त हुआ। जीप-कार आवश्यक मरम्मत के लिए वर्कशाप में भेजी गयी थी। मरम्मत होने के बाद, लोकूमल के उदयपुर शहर में एक लोक सड़क में कार वापस लाते समय ड्राइव करते हुए जगदीश लाल नामक एक व्यक्ति को, जो उस समय फुटपाथ पर जा रहा था, टक्कर मार दिया जिससे उसको बहुत गहरी चोट पहुँची। इसमें उसकी खोपड़ी फट गयी तथा रीढ़ की हड्डी भी टूट गयी। परिणाम यह हुआ कि इस घटना के तीन दिन बाद अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गयी। श्रीमती विद्यावती तथा उसके अवयस्क बच्चों ने अपनी माता के संरक्षण में ड्राइवर लोकूमल तथा राजस्थान राज्य के विरुद्ध नुकसानी के रूप में 25 हजार रुपये का दावा करते हुए अपकृत्य का वाद दायर कर दिया। दोनों निचले न्यायालयों ने वाद की डिक्री कर दी। राजस्थान राज्य ने मुख्य रूप से केवल इस बात पर वाद का प्रतिरोध किया कि राज्य अपने कर्मचारी के अपकृत्यपूर्ण कार्य के लिए दायित्वाधीन (Liable) नहीं है।

निर्णय-राज्य किसी अन्य नियोजक (Employer) की भाँति अपकृत्यपूर्ण कार्य के लिए प्रतिनिधिक रूप से दायित्व के अधीन (Vicariously liable) माना जा सकता है। मुख्य न्यायाधीश सिन्हां ने अवलोकन किया कि अपीलार्थी ने दो आपत्तियाँ उठायी हैं: पहली आपत्ति यह है कि संविधान के अनुच्छेद 300 के अन्तर्गत राजस्थान राज्य दायी (liable) नहीं था, क्योंकि समतुल्य भारतीय राज्य उस समय दायी (liable) न होता यदि संविधान लागू होने के पूर्व में यह वाद लाया गया होता। दूसरी आपत्ति यह थी कि जीप-कार जिसके तेजी और उपेक्षापूर्ण ढंग से चलाने के कारण वाद का दावा किया गया था, "प्रभुत्वसम्पन्न शक्तियों (Sovereign power) के प्रयोग में "मरम्मत करायी जा रही थी और वह राज्य की किसी वाणिज्यिक प्रक्रिया के अंग के रूप में धारण नहीं की जा रही थी।

पहली आपत्ति के सम्बन्ध में माननीय न्यायाधीश ने अवलोकन किया कि यह बहस करना सही नहीं है कि अनुच्छेद 300 के उपबन्ध अपीलार्थी राज्य के उत्तरदायित्व का अवधारण करने के लिए पूर्णतः सुसंगत नहीं हैं। यह सत्य है कि अनुच्छेद 294 तथा 293 विगत गवर्नरी प्रान्तों या भारतीय राज्यों प्रथम अनुसूची के भाग ब में निर्धारित सम्पत्तियों, परिसम्पदाओं के दायित्वों तथा कर्त्तव्यों के बारे में हैं और सामान्य रूप से एक भारतीय राज्य (Indian State) के अधिकारों तथा दायित्वों के सम्बन्ध में राज्य के उत्तराधिकार के लिए व्यवस्था करते हैं, अर्थात् ये उन अधिकारों तथा दायित्वों को निर्धारित नहीं करते, बल्कि एक सरकार को दूसरी सरकार के स्थान में प्रतिस्थापित करते हैं।

संविधान के अन्तर्गत एक कल्याणकारी राज्य का कर्त्तव्य जो स्थापित कर दिया गया है, केवल विधि और व्यवस्था (Law and order) पालन करने तक ही सीमित नहीं है, किन्तु इसका विस्तार सभी प्रकार की क्रियाशीलताओं तक है जिसमें उद्योग, राज्य परिवहन (State transport), राज्य व्यापार आदि आते हैं।

जहाँ तक राज्य की क्रियाशीलताओं का शाखा के रूप में विस्तार है, वह केवल प्रभुत्वसम्पन्न शक्तियों का ही प्रयोग नहीं करता, बल्कि ऐसी शक्तियों के अन्तर्गत है जिसे नियोजकगण (Employers) अनेक सार्वजनिक क्षेत्रों में रखते हैं, यह बहुत अधिक दावा (Claim) करना है कि इस प्रकार उसके नियोजन (Employment) के दौरान उनके कर्मचारियों द्वारा किये गये अपकृत्यपूर्ण कार्यों के परिणामों से राज्य को उन्मुक्त (Immune) होना चाहिये।

राजस्थान राज्य वहाँ तक दायित्व से नहीं बच सकता जहाँ तक उसके पास यह दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है कि उसका पूर्ववर्ती राजस्थान संघ (Union of Rajasthan) एकीकरण (Integration) की अन्तिम अवस्था में, संविधान के प्रभाव में आने से ठीक पहले अस्तित्व में लाया गया था, वास्तविक अधिनियम के किसी नियम द्वारा या सामान्य विधि (Common Law) में उत्तरदायी (Liable) न था।

माननीय न्यायाधीश ने अवलोकन किया कि "स्वयं संविधान के अनुच्छेद 300 ने संसद् के अधिकार या राज्य के विधान मण्डल के अधिकार को रक्षित रखा है ताकि वह इस संबंध में जैसा ठीक और उचित समझे, विधि का अधिनियमन कर सकता है। किन्तु जब तक विधानमण्डल ने इसके विपरीत अपना कोई आशय अभिव्यक्त नहीं किया है, यह अवश्य अभिनिर्धारित किया जाना चाहिये कि इस सम्बन्ध में वही विधि है जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय से अब तक चली आ रही है।"

ऐसी परिस्थितियों में अपील वाद-व्यय सहित खारिज कर दी गयी।

अपील खारिज की गयी।

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