अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958
(1958 का अधिनियम संख्यांक 20)1
[16 मई, 1958]
अपराधियों को परिवीक्षा पर या सम्यक भर्त्सना के पश्चात् छोड़ दिए जाने के लिए और इससे संबद्ध बातों के लिए उपबंध करने के लिए अधिनियम
भारत गणराज्य के नवें वर्ष में संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो :-
1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारंभ-(1) यह अधिनियम अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 कहा जा सकता है।
(2) इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय संपूर्ण भारत पर है।
(3) किसी राज्य में यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जिसे वहु राज्य सरकार, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा नियत करे,
और राज्य के विभिन्न भागों के लिए विभिन्न तारीखें नियत की जा सकेंगी।
2. परिभाषाएं-इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो-
(क) "संहिता" से दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 (1898 का 5) अभिप्रेत है;
(ख) "परिवीक्षा अधिकारी" से वह अधिकारी अभिप्रेत है जो धारा 13 के अधीन परिवीक्षा अधिकारी नियुक्त किया
गया है या उस रूप में मान्यताप्राप्त है;
(ग) "विहित" से हस अधिनियम के अधीन बनाए गए अधिनियमों द्वारा विहित अभिप्रेत है;
(घ) ऐसे शब्दों और पदों के, जो इस अधिनियम में प्रयुक्त हैं किन्तु परिभाषित नहीं हैं और दण्ड प्रक्रिया संहिता,
1898 (1898 का 5) में परिभाषित हैं, वे ही अर्थ होंगे जो उस संहिता में क्रमशः उनके हैं।
3. कतिपय अपराधियों को भर्त्सना के पश्चात् छोड़ देने की न्यायालय की शक्ति-जब कोई व्यक्ति भारतीय दण्ड संहिता, (1860 का 45) की धारा 379 या धारा 380 या धारा 381 या धारा 404 या धारा 420 के अधीन दण्डनीय कोई अपराध अथवा भारतीय दण्ड संहिता या किसी अन्य विधि के अधीन दो वर्ष से अनधिक के लिए कारावास या जुर्माे अथवा दोनों से दण्डनीय कोई अपराध करने का दोषी पाया जाता है और उसके विरुद्ध कोई पूर्व दोषसिद्धि साबित नहीं होती है और जिस न्यायालय ने उस व्यक्ति को दोषी पाया है उसकी यह राय है कि मामले की परिस्थितियों को, जिनके अंतर्गत अपराध की प्रकृति और अपराधी का चरित्र भी है ध्यान रखते हुए ऐसा करना समीचीन है जब तब तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी वह न्यायालय उसे दंडित करने या उसे धारा 4 के अधीन सदाचरण की परिवीक्षा पर छोड़ने के बजाय उसे सम्यक भर्त्सना के पश्चात् छोड़ सकेगा।
स्पष्टीकरण-इस धारा के प्रयोजन के लिए किसी व्यक्ति के विरुद्ध पूर्व दोषसिद्धि के अन्तर्गत इस धारा या धारा 4 के अधीन उसके विरुद्ध किया गया कोई पूर्व आदेश भी है।
4. कतिपय अपराधियों को सदाचरण की परिवीक्षा पर छोड़ने की न्यायालय की शक्ति-(1) जब कोई व्यक्ति ऐसा कोई अपराध करने का दोषी पाया जाता है जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय नहीं है और जिस न्यायालय ने उस व्यक्ति को दोषी पाया है उसकी यह राय है कि मामले की परिस्थितियों को जिनके अन्तर्गत अपराध की प्रकृति और अपराधी का चरित्र भी है, ध्यान में रखते हुए उसे सदाचरण की परिवीक्षा पर छोड़ देना समीचीन हो तब तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी वह न्यायालय उसे तुरन्त दंडित करने के बजाय, निदेश दे सकेगा कि उसे, प्रतिभुओं के सहित या उनके बिना, उसके द्वारा ऐसा बंधपत्र देने पर छोड़ दिया जाए कि वह तीन वर्ष से अनधिक की ऐसी कालावधि के दौरान, जैसी न्यायालय निर्दिष्ट करे, आहूत किए जाने पर उपस्थित होगा और दण्डादेश प्राप्त करेगा और इस बीच परिशान्ति कायम रखेगा और सदाचारी रहेगा :
परन्तु न्यायालय किसी अपराधी के ऐसे छोड़ दिए जाने का निदेश तब तक नहीं देगा जब तक उसका समाधान नहीं हो जाता कि अपराधी या उसके प्रतिभू का, यदि कोई हो, नियत निवास-स्थान या उस स्थान में नियमित उपजीविका है, जिस पर वह न्यायालय अधिकारिता का प्रयोग करता है या जिसमें अपराधी के उस कालावधि के दौरान रहने की संभाव्यता है जिसके लिए वह बंधपत्र देता है।
(2) उपधारा (1) के अधीन कोई आदेश करने से पूर्व न्यायालय, मामले के बारे में, संबंधित परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट पर, यदि कोई हो, विचार करेगा।
यह अधिनियम दादरा और नागर हवेली पर 1963 के विनियम सं० 6 की धारा 2 और अनुसूची 1 द्वारा और गीवा, दमण और दीव पर 1963 के विनियम सं० 11 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा विस्तारित किया गया।
1968 के अधिनियम सं० 26 की धारा 3 तथा अनुसूची द्वारा पांहिचेरी संघ राज्यक्षेत्र पर विस्तार किया गया है और महाराष्ट्र में महाराष्ट्र के अधिनियम, 1969 की धारा 31 द्वारा संशोधित किया गया।
(3) जब उपधारा (1) के अधीन आदेश किया जाता है तब यदि न्यायालय की यह राय है कि अपराधी और जनता के हितों में ऐसा करना समीचीन है, तो वह उसके अतिरिक्त एक पर्यवेक्षण आदेश पारित कर सकेगा जिसमें यह निदेश होगा कि अपराधी आदेश में नामित किसी परिवीक्षा अधिकारी के पर्यवेक्षण के अधीन एक वर्ष से कम न होने वाली ऐसी कालावधि के दौरान रहेगा जो उसमें विनिर्दिष्ट हो, और ऐसे पर्यवेक्षण आदेश में ऐसी शर्ते अधिरोपित कर सकेगा जैसी वह अपराधी सम्यक पर्यवेक्षण के लिए आवश्यक समझता है।
(4) उपधारा (3) के अधीन पर्यवेक्षण आदेश करने वाला न्यायालय अपराधी से अपेक्षा करेगा कि छोड़े जाने से पूर्व, वह ऐसे आदेश में विनिर्दिष्ट शर्तों का और निवास-स्थान मादक पदार्थों से प्रवरित या किसी अन्य बात के बारे में ऐसी अतिरिक्त शर्तों का, जैसी न्यायालय विशिष्ट परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए उसी अपराध की पुनरावृत्ति को या अपराधी द्वारा अन्य अपराधों के किए जाने को रोकने के लिए अधिरोपित करना ठीक समझे, पालन करने के लिए प्रतिभूओं के सहित या बिना एक बंधपत्र दे।
(5) उपधारा (3) के अधीन पर्यवेक्षण आदेश करने वाला न्यायालय आदेश के निबंधनों और शर्तो को अपराधी को समझाएगा और प्रत्येक अपराधी, प्रतिभू, यदि कोई हो, और संबंधित परिवीक्षा अधिकारी को तुरन्त पर्यवेक्षण आदेश की एक प्रति देगा।
5. छोड़े गए अपराधियों से प्रतिकर और खर्च देने की अपेक्षा करने की न्यायालय की शक्ति-(1) धारा 3 या धारा 4 के अधीन अपराधी को छोड़ने का निदेश देने वाला न्यायालय, यदि ठीक समझता है, तो उसी समय तक अतिरिक्त आदेश कर सकेगा जिसमें उसे निम्नलिखित संदत्त करने के लिए निर्दिष्ट किया जाएगा-
(क) अपराध के किए जाने से किसी व्यक्ति की हुई हानि या क्षति के लिए इतना प्रतिकर जितना न्यायालय
युक्तियुक्त समझता है; और
(ख) कार्यवाहियों के इतने खर्चे जितने न्यायालय युक्तियुक्त समझता है।
(2) उपधारा (1) के अधीन संदत्त किए जाने के लिए आदिष्ट रकम संहिता की धारा 386 और 387 के उपबंधों के अनुसार जुर्माने के रूप में वसूल की जा सकेगी।
(3) उसी मामले से जिसके लिए अपराधी अभियोजित किया जाता है पैदा होने वाले किसी वाद का विचारण करने वाला सिविल न्यायालय नुकसानी दिलाने में उस किसी रकम को गणना में लेगा जो उपधारा (1) के अधीन प्रतिकर के रूप में संदत्त या वसूल की गई हो।
6. इक्कीस वर्ष से कम आयु वाले अपराधियों के कारावास पर निर्बन्धन-(1) जब इक्कीस वर्ष से कम आयु वाला कोई व्यक्ति कारावास से (किन्तु आजीवन कारावास से नहीं) दण्डनीय कोई अपराध करने का दोषी पाया जाता है तब वह न्यायालय जिसने उस व्यक्ति को दोषी पाया है उसे कारावास से तब तक दंडित नहीं करेगा जब तक उसका समाधान नहीं हो जाता है कि मामले की परिस्थितियों को, जिनके अंतर्गत अपराध की प्रकृति और अपराध का चरित्र भी है, ध्यान में रखते हुए यह वांछनीय नहीं होगा कि उससे धारा 3 या धारा 4 के अधीन व्यवहार किया जाए और यदि न्यायालय अपराधी को कारावास का कोई दंड देता है तो वह वैसा करने के अपने कारणों को अभिलिखित करेगा।
(2) अपना यह समाधान करने के प्रयोजन के लिए कि क्या उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी अपराधी से धारा 3 या धारा 4 के अधीन व्यवहार करना वांछनीय नहीं होगा, न्यायालय परिवीक्षा अधिकारी से रिपोर्ट मांगेगा और रिपोर्ट पर, यदि कोई हो, और अपराधी के चरित्र और शारीरिक तथा मानसिक दशा से सम्बद्ध उसे प्राप्त किसी अन्य जानकारी पर, विचार करेगा।
7. परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट का गोपनीय होगा-धारा 4 की उपधारा (2) या धारा 6 की उपधारा (2) में निर्दिष्ट परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट गोपनीय मानी जाएगी :
परंतु न्यायालय यदि ठीक समझता है, तो उसका सार अपराधी को संसूचित कर सकेगा और उसे ऐसा साक्ष्य पेश करने का अवसर दे सकेगा जैसा रिपोर्ट में कथित विषय से सुसंगत हो।
8. परिवीक्षा की शर्तों में फेरफार-(1) यदि किसी परिवीक्षा अधिकारी के आवेदन पर किसी न्यायालय की, जिसने किसी अपराधी के संबंध में धारा 4 के अधीन आदेश पारित किया है, यह राय है कि अपराधी द्वारा दिए गए किसी बंधपत्र की शर्तों में फेरर करना उस अपराधी और जनता के हितों में समीचीन या आवश्यक है तो वह उस कालावधि के दौरान, जब बंधपत्र प्रभावी है, किसी समय उसकी अस्तित्वावधि को बढ़ा या घटा कर किन्तु इस प्रकार की वह मूल आदेश की तारीख से तीन वर्ष से अधिक की न हों अथवा उसकी शर्तों को परिवर्तित करके या उसमें अतिरिक्त शर्ते अंतःस्थापित करके उस बंधपत्र में फेरफार कर सकेगा: परन्तु ऐसा कोई फेरफार अपराधी को या बंधपत्र में वर्णित प्रतिभू या प्रतिभुओं को सुनवाई अवसर दिए बिना नहीं किया
(2) यदि कोई प्रतिभू उपधारा (1) के अधीन किए जाने के लिए प्रस्थापित किसी फेरफार के लिए सहमत होने से इन्कार करता है तो न्यायालय अपराधी से नया बंधपत्र देने की अपेक्षा कर सकेगा और अपराधी यदि वैसा करने से इन्कार करेगा या उसमें असफल होगा तो न्यायालय उसे उस अपराध के लिए दण्डित कर सकेगा, जिसका वह दोषी पाया गया था।
(3) इसमें इसके पूर्व अन्तर्विष्ठ किसी बात के होते हुए भी यदि किसी न्यायालय का जो किसी अपराधी के संबंध में धारा 4 के अधीन कोई आदेश पारित करता है परिवीक्षा अधिकारी द्वारा किए गए आवेदन पर समाधान हो जाता है कि अपराधी का आचरण ऐसा रहा है कि उसे और आगे पर्यवेक्षणाधीन रखना अनावश्यक हो गया है तो वह उसके द्वारा दिए गए बंधपत्र को उन्मोचित कर सकेगा।
9. बंधपत्र की शर्तों के अनुपालन में अपराधी के असफल होने की दशा में प्रक्रिया-(1) यदि उस न्यायालय के पास जो किसी अपराधी के संबंध में धारा 4 के अधीन कोई आदेश पारित करता है या किसी न्यायालय के पास जो उस अपराधी की बाबत उसके मूल अपराध के संबंध में कार्यवाही कर सकता था, परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट पर या अन्यथा यह विश्वास करने का कारण है कि अपराधी अपने द्वारा दिए गए बंधपत्र या बंधपत्रों की शर्तों में से किसी का अनुपालन करने में असफल हुआ है तो वह उसकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर सकेगा या यदि ठीक समझता है तो उसके या प्रतिभूओं के, यदि कोई हों, नाम समन निकाल सकेगा जिसमें उससे या उनसे यह अपेक्षा की जाएगी कि उस समय पर जो समनों में विनिर्दिष्ट हो उसके समक्ष उपस्थित हों।
(2) न्यायालय, जिसके समक्ष अपराधी इस प्रकार लाया जाता है या उपस्थित होता है या तो उससे मामले की समाप्ति तक के लिए अभिरक्षा में प्रतिप्रेषित कर सकेगा या उस तारीख को जो वह सुनवाई के लिए नियत करे उपस्थित होने के लिए उसे प्रतिभू के सहित या बिना जमानत मंजूर कर सकेगा।
(3) यदि मामले की सुनवाई के पश्चात न्यायालय का समाधान हो जाता है कि अपराधी अपने द्वारा दिए गए बंधपत्र की शर्तों में से किसी का अनुपालन करने में असफल हुआ है तो वह तत्काल-
(क) उसे मूल अपराध के लिए दंडित कर सकेगा;
(ख) जहां असफलता प्रथम बार होती है वहां बंधपत्र के प्रवृत्त रहने पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना उस पर पचास रुपए से अनधिक की शास्ति अधिरोपित कर सकेगा।
(4) यदि उपधारा (3) के खंड (ख) के अधीन अधिरोपित शास्ति ऐसी कालावधि के भीतर जैसी न्यायालय नियत करे संदत्त नहीं की जाती है तो न्यायालय अपराधी को मूल अपराध के लिए दंडित कर सकेगा।
10. प्रतिभुओं के बारे में उपबंध-संहिता की धारा 122, 126, 126क, 406क, 514, 514क, 514ख और 515 के उपबंध इस अधिनियम के अधीन दिए गए बन्धपत्रों और प्रतिभुओं की दशा में यावत्शक्य लागू होंगे।
11. अधिनियम के अधीन आदेश देने के लिए साक्ष्य न्यायालय, अपील और पुनरीक्षण और अपीलें और पुनरीक्षण न्यायालयों की शक्तियां-(1) संहिता में या किसी अन्य विधि में अन्तर्विष्ठ किसी बात के होते हुए भी इस अधिनियम के अधीन आदेश, अपराधी का विचारण और उसे कारावास से दंडित करने के लिए सशक्त किसी न्यायालय द्वारा, और उच्च न्यायालय या किसी अन्य न्यायालय द्वारा भी, जब कि मामला उसके समक्ष अपील में या पुनरीक्षण में आए, दिया जा सकेगा।
(2) संहिता में अन्तर्विष्ठ किसी बात के होते हुए भी जहां धारा 3 या धारा 4 के अधीन कोई आदेश अपराधी का विचारण करने वाले किसी न्यायालय द्वारा (जो उच्च न्यायालय से भिन्न हो) दिया जाता है वहां अपील उस न्यायालय को की जा सकेगी जिसको पूर्ववर्ती न्यायालय के दंडादेशों से अपील मामूली तौर पर की जाती है।
(3) किसी ऐसे मामले में जिसमें इक्कीस वर्ष से कम आयु वाला कोई व्यक्ति कोई अपराध करने का दोषी पाया जाता है और वह न्यायालय जिसने उसे दोषी पाया है उसके संबंध में धारा 3 या धारा 4 के अधीन कार्यवाही करने से हन्कार करता है और उसके विरुद्ध जुर्माने के सहित या बिना कारावास का दंडादेश पारित करता है जिसकी कोई अपील नहीं हो सकती या नहीं की जाती तो इस संहिता या किसी अन्य विधि में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी वह न्यायालय, जिसको पूर्ववर्ती न्यायालय के दंडादेशों से अपीलें मामूली तौर पर की जाती है, या तो स्वप्रेरणा से या सिद्धदोष व्यक्ति अथवा परिवीक्षा अधिकारी द्वारा उसको आवेदन किए जाने पर मामले का अभिलेख मंगा सकेगा और उसकी परीक्षा कर सकेगा तथा उस पर ऐसा आदेश पारित कर सकेगा जैसा वह ठीक समझता है।
(4) जब किसी अपराधी के संबंध में धारा 3 या धारा 4 के अधीन कोई आदेश दिया गया है तब अपील न्यायालय या उच्च न्यायालय अपनी पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करते हुए, ऐसे आदेश को अपास्त कर सकेगा और उसके बदले में ऐसे अपराधी की बाबत विधि के अनुसार दण्डादेश पारित कर सकेगा :
परन्तु अपील न्यायालय या उच्च न्यायालय पुनरीक्षण करते हुए उससे अधिक दण्ड नहीं देगा जो उस न्यायालय द्वारा दिया जा सकता था जिसके द्वारा अपराधी दोषी पाया गया था।
12. दोषसिद्धि से संलग्न निरर्हता का हटाया जाना-किसी अन्य विधि में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी कोई व्यक्ति, जो अपराध का दोषी पाया जाता है और जिसके संबंध में धारा 3 या धारा 4 के उपबंधों के अधीन कार्यवाही की जाती है, ऐसी विधि के अधीन किसी अपराध की दोषसिद्धि से संलग्न, यदि कोई हो, निरर्हता से ग्रस्त नहीं होगा :
परन्तु इस धारा की कोई बात किसी ऐसे व्यक्ति को लागू नहीं होगी जो धारा 4 के अधीन उसे छोड़ दिए जाने के बाद, तत्पश्चात् मूल अपराध के लिए दंडित किया जाता है।
13. परिवीक्षा अधिकारी-(1) इस अधिनियम के अधीन परिवीक्षा अधिकारी-
स्पष्टीकरण-इस धारा के प्रयोजनों के लिए प्रेसिडेंसी नगर को जिला समझा जाएगा और मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट को उस हए-
17. नियम बनाने की शक्ति-(1) राज्य सरकार इस अधिनियम के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए नियम, केन्द्रीय सकेगी,
(क) वह व्यक्ति होगा जो राज्य सरकार द्वारा, परिवीक्षा अधिकारी नियुक्त किया गया है या राज्य सरकार द्वारा उस रूप में मान्यताप्राप्त है; या
(ख) वह व्यक्ति होगा जो राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त मान्यताप्राप्त सोसाइटी द्वारा इस प्रयोजन के लिए उपलभ्य किया गया है; या
(ग) किसी असाधारण मामले में कोई अन्य व्यक्ति होगा जो न्यायालय की राय में उस मामले की विशेष परिस्थितियों में परिवीक्षा अधिकारी के रूप में कार्य करने के योग्य है।
(2) कोई न्यायालय जो धारा 4 के अधीन कोई आदेश पारित करता है या उस जिले का जिसमें अपराधी तत्समय निवास करता है, जिला मजिस्ट्रेट किसी भी समय, पर्यवेक्षण आदेश में नामित किसी व्यक्ति के स्थान पर कोई परिवीक्षा अधिकारी नियुक्त कर सकेगा।
जिले का जिला मजिस्ट्रेट समझा जाएगा।
(3) परिवीक्षा अधिकारी इस अधिनियम के अधीन अपने कर्तव्यों के प्रयोग में उस जिले के जिसमें अपराधी तत्समय निवास करता है, जिला मजिस्ट्रेट के नियंत्रण के अध्यधीन होगा।
14. परिवीक्षा अधिकारी के कर्तव्य-परिवीक्षा अधिकारी ऐसी शर्तो और निबंधनों के जो विहित किए जाएं, अध्यधीन रहते
(क) किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति की परिस्थितियों या घर के माहौल की जांच, उसके संबंध में कार्यवाही करने की सबसे उपयुक्त पद्धति अवधारित करने में न्यायालय की सहायता करने की दृष्टि से, न्यायालय के निदेशों के अनुसार करेगा और न्यायालय को रिपोर्ट देगा;
(ख) परिवीक्षाधीनों और अपने पर्यवेक्षण के अधीन रखे गए अन्य व्यक्तियों का पर्यवेक्षण करेगा और जहां आवश्यक हो उनके लिए उपयुक्त नियोजन ढूंढने का प्रयास करेगा;
(ग) न्यायालय द्वारा आदिष्ट प्रतिकर या खर्चों के संदाय में अपराधियों को सलाह और सहायता देगा;
(घ) उन व्यक्तियों को जो धारा 4 के अधीन छोड़ दिए गए हैं, ऐसे मामलों में और ऐसी रीति में, जो विहित की जाए, सलाह और सहायता देगा; और
(ङ) ऐसे अन्य कर्तव्य करेगा जो विहित किए जाएं।
15. परिवीक्षा अधिकारियों का लोक सेवक होना-इस अधिनियम के अनुसरण में नियुक्त प्रत्येक परिवीक्षा अधिकारी और प्रत्येक अन्य अधिकारी भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 21 के अर्थ में लोक सेवक समझे जाएंगे।
16. सद्भावपूर्वक की गई कार्यवाही के लिए संरक्षण-कोई भी बात या अन्य विधिक कार्यवाही किसी भी ऐसी बात के बारे में जो इस अधिनियम के या तद्धीन बनाए गए किन्हीं नियमों या आदेशों के अनुसरण में सद्भावपूर्वक की गई हो या की जाने के लिए आशगित हो, राज्य सरकार या किसी परिवीक्षा अधिकारी या इस अधिनियम के अधीन नियुक्त किसी अन्य अधिकारी के विरुद्ध न होगी।
सरकार के अनुमोदन से, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, बना सकेगी।
(2) विशिष्टतया और पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना ऐसे नियम निम्नलिखित विषयों में से सब या किसी के लिए उपबन्ध कर सकेंगे, अर्थात् :-
(क) परिवीक्षा अधिकारियों की नियुक्ति, उनकी सेवा के निबंधन और शर्ते तथा वह क्षेत्र जिसके भीतर उनको अधिकारिता का प्रयोग करना है;
(ख) इस अधिनियम के अधीन परिवीक्षा अधिकारियों के कर्तव्य और उनके द्वारा रिपोटों का दिया जाना;
(ग) वे शर्ते जिन पर सोसाइटियों को धारा 13 की उपधारा (1) के खण्ड (ख) के प्रयोजनों के लिए मान्यता दी जा
(घ) परिवीक्षा अधिकारियों को पारिश्रमिक और व्ययों का अथवा किसी सोसाइटी को जो परिवीक्षा अधिकारी अपलभ्य करती है सहायिकी का संदाय, और
(ङ) कोई अन्य विषय जो विहित किया जाना है या किया जाए।
(3) इस धारा के अधीन बनाए गए सब नियम पूर्व प्रकाशन की शर्त के अध्यधीन होंगे और बनाए जाने के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र राज्य विधान-मंडल के समक्ष रखे जाएंगे।
18. कतिपय अधिनियमितियों के प्रवर्तन की व्यावृत्ति-इस अधिनियम की कोई बात सुधार विद्यालय अधिनियम, 1897 (1897 का 8) की धारा 31 या भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 (1947 का 2) की धारा 5 की उपधारा (2) 1* * * के अथवा किशोर अपराधियों या बोर्स्टल स्कूलों से संबद्ध किसी राज्य में प्रवृत्त किसी विधि के उपबंधों को प्रभावित नहीं करेगी।
19. संहिता की धारा 562 का कतिपय क्षेत्रों में लागू न होना-धारा 18 उपबंधों के अध्यधीन संहिता की धारा 562, उन राज्यों या उनके भागों में जिनमें यह अधिनियम प्रवृत्त किया जाता है, लागू नहीं होगी।